Down Syndrome in Hindi: प्रेग्नेंसी में माता और पिता के 46 क्रोमोसोम्स (chromosomes) में 23 माता के और 23 पिता के क्रोमोसोम्स आपस में मिलते हैं। इस प्रक्रिया में जब 21वां क्रोमोसोम डिवीजन नहीं कर पाता, तो वह अपनी एक अतिरिक्त कॉपी बना लेता है। इससे शिशु में 46 क्रोमोसोम्स की बजाय 47 क्रोमोसोम्स पाए जाते हैं। अतिरिक्त क्रोमोसोम के चलते शिशु में मानसिक और शारीरिक विकार नजर आते हैं। सीडीसी (CDC) रिपोर्ट के अनुसार बच्चों का चपटा मुंह, बादाम जैसी आंखें, छोटी गर्दन और जीभ मुंह (facial features of down syndrome) से बाहर रहती हैं। यह समस्या बहुत ज्यादा नहीं पाई जाती, इसलिए इस बीमारी को लेकर लोगों में कई तरह की भ्रांतियां हैं, जिसकी सच्चाई जानना बहुत महत्वपूर्ण है। इस विश्व डाउन सिंड्रोम दिवस (World Down Syndrome Day 2025) के मौके पर बालरोग विशेषज्ञ और कॉन्टिनुआ किड्स की डायरेक्टर और को-फाउंडर डॉ. पूजा कपूर से मिथकों की सच्चाई जानने की कोशिश की।
मिथक: बड़ी उम्र में माता-पिता बनने पर बच्चों को डाउन सिंड्रोम (Down Syndrome) होने की संभावना बहुत ज्यादा होती है।
सच्चाई: इस बारे में डॉ. पूजा कहती हैं, “वैसे तो मां की उम्र बच्चे में डाउन सिंड्रोम होने की संभावना बढ़ा सकती है, लेकिन कई मामलों में युवा महिलाओं के शिशु को भी यह समस्या हो सकती है। आमतौर पर माना जाता है कि अगर मां की उम्र 25 है, तो 1250 में से किसी एक शिशु को यह रोग होने की संभावना होती है। वहीं अगर मां की उम्र 31 है तो 1000 में से एक और 35 के पार 400 मामलों में से एक मामला होने का चांस बढ़ जाता है। इसलिए अगर महिला 35 साल के बाद प्रेग्नेंट होती है, तो उसे डाउन सिंड्रोम का टेस्ट कराना चाहिए।”
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मिथक: डाउन सिंड्रोम होने की वजह पारिवारिक इतिहास होता है।
सच्चाई: डॉ. पूजा के अनुसार सिर्फ चार प्रतिशत मामलों में फैमिली हिस्ट्री होती है। आमतौर पर डाउन सिंड्रोम होने की वजह अतिरिक्त 21वां क्रोमोसोम है। यह भ्रूण बनने के शुरुआती स्टेज में होता है, क्योंकि उस स्टेज पर क्रोमोसोम का डिवीजन होता है। ऐसे में मां की उम्र एक कारण हो सकती है, लेकिन सिर्फ 3 से 4 प्रतिशत मामलों में ही जेनेटिक कारण होते हैं, जब ट्रांसलोकेशन जैसा कारण होता है।
मिथक: डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे और बड़े इमोशनली एक जैसा ही महसूस करते हैं।
सच्चाई: डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों और बड़ों में इमोशनल और फिजिकल हेल्थ अलग-अलग रहती है। उनके इमोशन्स भी आम लोगों की तरह ही होते हैं। डाउन सिंड्रोम के बच्चे आम बच्चों की तरह दोस्ती करना पसंद करते हैं, वहीं जब वे बड़े होते हैं, तो उन्हें किसी बात या घटना का दुख और खुशी दोनों ही महसूस होता है। उन्हें भी अपने दिल का हाल बताने के लिए साथी की जरूरत होती है। हालांकि, हेल्थ में थोड़ा वे आम बच्चों से अलग रहते हैं। उनके गर्दन के जॉइंट या दिल संबंधी बीमारियां होने का खतरा रहता है। उम्र बढ़ने के साथ अल्जाइमर की स्क्रीनिंग होनी चाहिए।
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मिथक: डाउन सिंड्रोम से ग्रसित लोग एक जैसे दिखते हैं।
सच्चाई: डॉ. पूजा कहती हैं कि ऐसे लोगों के शरीर का टोन बहुत कम होता है, इसलिए वह भारी लगते हैं। लेकिन सभी ऐसे नहीं होते, डाउन सिंड्रोम के लोग पतले भी होते हैं। इसके अलावा, ऐसे लोगों की आंखें, नाक और मुंह चपटा होता है। लेकिन इन लक्षणों के आधार पर डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों को एक जैसा कहना गलत है। हर बच्चे में अलग तरह के फीचर्स होते हैं, जो उन्हें दूसरों से अलग करते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को एक जैसा कहना गलत है।
मिथक: डाउन सिंड्रोम के लोगों को बहुत ज्यादा याद नहीं रहता।
सच्चाई: डॉ. पूजा कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि डाउन सिंड्रोम लोगों को कुछ याद नहीं रहता। उनकी मेमोरी सही होती है, जैसे आम लोगों की होती है। बस फर्क यह हो सकता है कि याद रखने की क्षमता अलग-अलग हो सकती है, और ऐसा तो आम लोगों में भी होता है। सभी पीड़ित किसी घटना या काम को बिल्कुल याद नहीं रख सकते, ऐसा कहना गलत होगा। कई रोगी आम लोगों की तरह नौकरी या काम करते हैं।”
तो, अगर आप किसी डाउन सिंड्रोम बच्चे या व्यस्क से मिलते हैं, या उनके काम करते हैं, तो आप उनका मूल्यांकन सिर्फ उसके फीचर्स या फिर बाहरी आकार से न करें, बल्कि उनके काम और क्षमताओं से करें। हमेशा याद रखें कि वे भी हर तरह की फीलिंग्स रखते हैं, फिर चाहे वह खुशी हो या फिर दुख। इसलिए उनके साथ नार्मल रहने की कोशिश करें और किसी भी तरह के मिथक के चलते उनके साथ गलत व्यवहार न करें।