Screening to identify Down Syndrome in Hindi: भारत में हर साल लाखों बच्चे डाउन सिंड्रोम नामक समस्या का शिकार होते हैं। डाउन सिंड्रोम क्रोमोजोम में गड़बड़ी के कारण होने वाली बीमारी है। यह एक तरह का जेनेटिक दिसऑर्डर है, जिसके कारण बच्चों को कई गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है। डाउन सिंड्रोम के शिकार बच्चों का दिमाग प्रभावित होता है। आमतौर पर एक नॉर्मल बच्चे में क्रोमोजोम की संख्या 46 होती है। वहीं डाउन सिंड्रोम से प्रभावित बच्चों में क्रोमोजोम की संख्या 47 होती है। डाउन सिंड्रोम का शिकार बच्चों में हार्ट से जुड़ी परेशानियां, मानसिक संस्याएं, थायराइड से जुड़ी समस्या जैसी परेशानियों का खतरा रहता है।
पूरी दुनिया में डाउन सिंड्रोम के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 21 मार्च को वर्ल्ड डाउन सिंड्रोम डे (World Down Syndrome Day 2024) मनाया जाता है। इस दिन का मकसद डाउन सिंड्रोम के प्रति जानकारी और जागरूकता बढ़ाना है, जिसकी मदद से बच्चों को इस गंभीर स्थिति से बचाया जा सकता है। आज के समय में डाउन सिंड्रोम जैसी गंभीर बीमारियों के खतरे को प्रेग्नेंसी के दौरान कुछ टेस्ट के माध्यम से पता किया जा सकता है।
प्रेग्नेंसी की पहली तिमाही में स्क्रीनिंग जरूरी- First Trimester Screening to identify Down Syndrome in Hindi
डाउन सिंड्रोम का पता लगाने के लिए प्रेग्नेंसी के दौरान टेस्ट किए जाते हैं। अमृता हॉस्पिटल, कोच्चि की Paediatric Genetics विभाग की हेड डॉ. शीला नम्पुथिरी कहती हैं, "जन्म के बाद की स्थिति का पता चलने से अक्सर परिवार बिना तैयारी के और चिंतित हो जाते हैं। इसलिए, यूनिवर्सल फर्स्ट ट्राइमेस्टर स्क्रीनिंग को अपनाना जरूरी है, जिसमें रक्त और अल्ट्रासाउंड परीक्षाओं में जैव रासायनिक मार्कर माप का उपयोग किया जाता है, जो भ्रूण के जोखिम की पहचान करने में 90 प्रतिशत तक सटीक रहता है।"
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डॉ. शीला ने कहा, डाउन सिंड्रोम को लेकर कोच्चि स्थित अमृता हॉस्पिटल में 418 मरीजों पर एक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में पता चला है, लगभग 78 प्रतिशत बच्चे 35 साल से कम उम्र की माताओं से हुए हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है, कि प्रेग्नेंसी के दौरान डाउन सिंड्रोम जैसी स्थिति की स्क्रीनिंग जरूर कराएं। यह स्थिति इस चीजों को भी दर्शाती है कि, यदि स्क्रीनिंग केवल 35 वर्ष से अधिक उम्र की गर्भवती महिलाओं की की जाती है तो इतने बड़े मामलों का पता नहीं चल पाता। डाउन सिंड्रोम से ग्रसित बच्चों के जन्म के दो महीने के भीतर प्रारंभिक हस्तक्षेप और फिजियोथेरेपी शुरू करने से जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
जांच से खतरे को कम करने में मिलती है मदद
जन्म से पहले गर्भ में पल रहे बच्चे की स्क्रीनिंग करने से डाउन सिंड्रोम का पता लगाने में मदद मिलती है। इसका पता चलने पर इलाज करने से खतरे को कम करने में मदद मिलती है। कैरियोटाइप एनालिसिस के माध्यम से इसकी पहचान करने में मदद मिलती है। गर्भावस्था के दौरान स्क्रीनिंग करने से आगे पैदा होने बच्चे में इसके खतरे को कम करने में भी मदद मिलेगी। डाउन सिंड्रोम मुख्य रूप से तीन तरह के होते हैं- नॉन-डिजंक्शन, ट्रांसलोकेशन और मोज़ेक डाउन सिंड्रोम। डाउन सिंड्रोम शुक्राणु या डिंब में असामान्य कोशिका विभाजन के कारण होता है। डाउन सिंड्रोम के 90 प्रतिशत मामले नॉन-डिजंक्शन प्रकार के होते हैं। माता या पिता से मिले 1 एक्स्ट्रा क्रोमोजोम के कारण यह समस्या हो सकती है।
डाउन सिंड्रोम के कारण हार्ट की बीमारियों का खतरा
अमृता हॉस्पिटल, कोच्चि के पीडियाट्रिक कार्डियोलॉजी विभाग के हेड और प्रोफेसर, डॉ. कृष्ण कुमार ने कहा, "डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में हार्ट से जुड़ी बीमारियों का खतरा ज्यादा रहता है। डाउन सिंड्रोम वाले लगभग 50% रोगियों में हृदय संबंधी विकार देखे जाते हैं और यदि उपचार लिया जाए तो बच्चे के जीवन की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है।" डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में हार्ट में छेद जैसी गंभीर समस्या का खतरा रहता है, सही समय पर इसकी पहचान के बाद सर्जरी करने से खतरे को कम करने में मदद मिलती है।
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डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में एटलांटोएक्सियल चोट का खतरा बढ़ जाता है। डाउन सिंड्रोम वाले बच्चे छोटी उम्र से, आमतौर पर 6 या 7 साल की उम्र तक, प्लेस्कूल में जा सकते हैं। एक बार जब उनमें संचार कौशल और अपने वातावरण के प्रति अनुकूल हो जाते हैं, तो वे बड़े स्कूलों में भेजा जा सकता है। डाउन सिंड्रोम के खतरे को कम करने के लिए गर्भवती महिलाओं को प्रेग्नेंसी की पहली तिमाही में इसकी स्क्रीनिंग जरूर करानी चाहिए।
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