स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा काफी व्यापक होता और इसमें कई चीजें शामिल होती हैं। हम फिलहाल जिस महामारी से जूझ रहे हैं, उसने पूरी दुनिया के स्वास्थ्य क्षेत्र के आधारभूत ढांचे को हिला कर रख दिया है। हम अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को केवल बीमारी विशेष से लड़ने के लिए बेहतर बनाने के बारे में नहीं सोच सकते हैं। जब अस्पताल कोविड-19 के मरीजों से भर गए तब उस हालात में ऐसे कई मरीज थे, जिन्होंने खुद को हाशिए पर खड़ा पाया। ऐसा ही एक समुदाय थैलेसीमिया मरीजों का है, जिन्हें तत्काल रक्ताधान यानी ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है।
भारत एक ऐसा देश है, जहां दुनिया में थैलेसीमिया से ग्रसित बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है और ऐसे वक्त में हम एक कठिन और मुश्किल लड़ाई लड़ रहे हैं। करीब एक से डेढ़ लाख बच्चे इस जन्मजात बीमारी से पीड़ित होते हैं और करीब दस से पंद्रह हजार बच्चे गंभीर थैलेसीमिया से पीड़ित होते हैं। ऐसे संवेदनशील समूहों या मरीजों के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है, जिसकी लागत लगातार बढ़ रही है। मौजूदा महामारी ने हमें ऐसे कई सबक दिए हैं और इसमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण सबक यह है कि हमें अगर थैलेसीमिया के मरीजों के इलाज पर होने पर भारी खर्च को नियंत्रित करना है तो हमें इसके प्रबंधन की बजाए इससे बचाव पर ध्यान दिए जाने की ज्यादा जरूरत है।
थैलेसीमिया क्या है? (What is Thalassemia Disease?)
थैलेसीमिया रक्त से संबंधित बीमारी है, जिसकी वजह से शरीर असामान्य तरीके का हीमोग्लोबिन पैदा करने लगता है। इसकी वजह से बड़े पैमाने पर लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) का नाश होता है और संबंधित व्यक्ति में खून की कमी होने लगती है। थैलेसीमिया एक वंशानुगत बीमारी है। हीमोग्लोबिन दो तरह के प्रोटीन अल्फा और बीटा से बना होता है। अगर शरीर में इन दोनों में कोई प्रोटीन कम मात्रा में बन रहा है तो रक्त कोशिकाओं के काम करने की क्षमता कम होती है और इसकी वजह से शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित होने लगती है। इसकी वजह से रक्त की कमी होती है। अधिकांश मामलों में बचपन के शुरुआती दिनों में यह स्थिति बनने लगती है। खून की कमी यानी एनीमिया की वजह से त्वचा का रंग फीका पड़ जाता है, थकान और कमजोरी महसूस होती है। इसके साथ ही सांस फूलने की समस्या भी होने लगती है।
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कोविड-19 महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन के कारण थैलेसीमिया के मरीजों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा और उन्हें बेहद जरूरी जीवन रक्षक ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए संघर्ष करना पड़ा। हीमोग्लोबिन के स्तर के आधार पर इस बीमारी से ग्रसित मरीजों को लगभग दो हफ्ते में ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है।
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नई थेरेपी को है अपनाने की जरूरत
यह सही समय है जब हमें नई थेरेपी के बारे में आत्म अवलोकन करने की जरूरत है, जिसे दुनिया भर में मान्यता मिली हुई है और इसकी मदद से दो ट्रांसफ्यूजन के बीच के समय को कम करने में मदद मिलती है। भारत को जीन थेरेपी के अधिकांश प्रभावित लोगों तक पहुंचाने के बारे में विचार करना चाहिए। इसका मकसद यह नहीं है कि हम इस बीमारी का प्रबंधन और बेहतर तरीके से कर पाएं बल्कि हम इस समस्या की जड़ तक पहुंचे, जिसकी मदद से इलाज की लागत और बीमारी की वजह से होने वाली परेशानियों दोनों को कम किया जा सके। मिसाल के लिए रेब्लोजील को ही ले लें। अमेरिकी नियामकीय एजेंसी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेटर (एफडीए) इसे मंजूरी दे चुका है और इसकी मदद से ब्लड ट्रांसफ्यूजन में लगने वाले समय को बढ़ाने में मदद मिलती है। आम तौर पर 15 दिनों के भीतर होने वाला ट्रांसफ्यूजन इस दवा की मदद से दो से तीन महीने तक की समय सीमा में शिफ्ट हो जाता है। वास्तव में कई स्टडी यह बताती हैं कि पांच फीसदी मरीजों (जिन्हें प्लेसेबो दिया गया) के मुकाबले करीब 21 फीसदी मरीजों में रेब्लोजील की मदद से आरबीसी ट्रांसफ्यूजन में 33 फीसदी की कमी आती है।
लोगों को करना होगा जागरूक
थैलेसीमिया के लागत को कम करने में दूसरी सबसे बड़ी बाधा जागरूकता का अभाव है। भारत में बचाव और रोकथाम के उपाय बेहद कमजोर हैं, जिसकी वजह से यह बीमारी कई बच्चों में वंशानुगत रूप से चली जाती है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब एक लाख मरीज इस बीमारी की वजह से 20 साल से कम उम्र में ही अपनी जान गंवा देते हैं क्योंकि उन्होंने इलाज तक पहुंच नहीं मिलती। हमें इस मसले के समाधान के लिए एक समग्र नीति की जरूरत है। हमें हस्तक्षेप करने की जरूरत है। हमें एक फ्रेमवर्क चाहिए, जिसकी मदद से हम किफायती लागत में उन्नत इलाज अपने मरीजों तक पहुंचा सकें।
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समाधान जिनकी हमें जरूरत है
जागरूकता आधारित अभियान की मदद से हम इस बीमारी के प्रसार को रोक सकते हैं। इसके साथ ही हम प्रभावित मरीजों को इलाज के तरीके और उसे लिए जाने के तरीकों के बारे में बता सकते हैं। अगर हम इसे आज शुरू करते हैं तो भी भारत को यहां से एक लंबी यात्रा तय करनी होगी। सालों तक ऐसी बीमारी से ग्रसित बच्चों को बोन मैरो यानी अस्थि मज्जा के प्रत्यारोपण की जरूरत होती थी और यह भी सभी के वश की बात नहीं थी। इसके बाद कई बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती थी और फिर शरीर से लोहे की अत्यधिक मात्रा को कम करने के लिए थेरेपी की जरूरत पड़ती थी। अब हमें थोड़ा रुककर उन समाधानों के बारे में सोचने की जरूरत है, जिसके परिणाम दीर्घकालिक हों। एडवांस्ड टेस्टिंग तकनीकों से लेकर नीतियों को बनाने तक, जोकि थैलेसीमिया के मरीजों को उचित इलाज मुहैया कराने का वादा करती हैं, के बारे में अब सरकार को हरकत में आना चाहिए। यह समय इस पर काम करने का है।
यह लेख प्रोफेसर आमिर उल्ला खान द्वारा लिखित है जो एक अर्थशास्त्री हैं और तेलंगाना सरकार के MCRHDRI में प्रोफेसर हैं।
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