प्रियंका चोपड़ा जल्दी ही अपनी नई फिल्म 'The Sky Is Pink'- 'द स्काई इज़ पिंक' में फरहान अख्तर और ज़ायरा वसीम के साथ नजर आने वाली हैं। प्रियंका का इंतजार बॉलीवुड के फैंस लंबे समय से कर रहे थे। साल 2016 में फिल्म 'जय गंगाजल' के बाद से प्रियंका बॉलीवुड के बजाय हॉलीवुड फिल्मों और टीवी शोज पर ही ध्यान दे रही थीं। इसी बीच उन्होंने 'निक जोनस' के साथ शादी भी रचाई। प्रियंका की नई फिल्म 'The Sky Is Pink' एक खूबसूरत लव स्टोरी है, जिसे फिल्म में उनकी बेटी 'आयशा' (ज़ायरा वसीम) की नजर से दिखाया गया है। फिल्म को शोनाली बोस ने डायरेक्ट किया है और ये फिल्म 11 अक्टूबर को रिलीज हो रही है।
फिल्म का इमोशनल एंगल ये है कि इसमें प्रियंका चोपड़ी और फरहान अख्तर की बेटी 'आयशा' यानी ज़ायरा वसीम 'पल्मोनरी फाइब्रोसिस' नामक गंभीर बीमारी की शिकार हैं। फिल्म 'आयशा' के किरदार के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आती है। खास बात ये है कि ये फिल्म एक रियल लाइफ पर्सन 'आयशा चौधरी' की जिंदगी पर आधारित है, जिन्होंने पल्मोनरी फाइब्रोसिस होने के बाद भी एक सफल मोटीवेशनल स्पीकर के रूप में अपने आप को स्थापित किया था।
आयशा चौधरी की कहानी है फिल्म 'The Sky Is Pink'
फिल्म 'The Sky Is Pink' आयशा चौधरी की रियल लाइफ स्टोरी पर आधारित है। आयशा चौधरी एक बेहरतीन राइटर और मोटिवेशनल स्पीकर थीं, जिनकी कहानी सचमुच हर किसी के लिए प्रेरणादायक है। आयशा जन्म के समय से ही सीवियर कम्बाइंड इम्यूनो डिफिसिएंसी (Severe Combined Immuno-Deficiency) यानी SIDC नाम की बीमारी से पीड़ित थीं। मात्र 6 महीने की छोटी सी उम्र में आयशा का बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया गया। उनकी मुश्किलें यहीं नहीं थमीं। 13 की अवस्था में आशया पल्मोनरी फाइब्रोसिस नामक गंभीर बीमारी का शिकार हो गईं। इन सबके बावजूद आयशा ने हार नहीं मानी और न ही उन्होंने इन बीमारियों को अपने सपनों पर हावी होने दिया।
18 साल की छोटी उम्र में दुनिया को कहा अलविदा
आयशा ने छोटी सी उम्र में अपनी कहानी लोगों को बतानी शुरू कर दी और अपने आप को एक सफल मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में स्थापित किया। दुखद यह रहा कि 24 जनवरी 2015 को महज 18 साल की छोटी सी उम्र में वो इस जिंदगी को विदा कह गईं। फिल्म 'The Sky Is Pink' आयशा चौधरी की जिंदगी की इसी जद्दो-जहद और सपनों की जीत की कहानी है, जो सभी को प्रेरित करने वाली है।
फेफड़े का 35% ही कर रहा था काम
आयशा चौधरी के फेफड़ों का सिर्फ 35% हिस्सा ही ठीक से काम कर पा रहा था, जिसके कारण उन्हें चलने, मुड़ने और सीढ़ियां चढ़ने में बहुत परेशानी होती थी। ठीक से सांस न ले पाने के कारण वो जल्द ही थक जाती थीं। आयशा ने 14 साल की उम्र से मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर बोलना शुरू कर दिया। 15 साल की उम्र से उन्हें पोर्टेबल ऑक्सीजन की जरूरत पड़ने लगी, इसके बाद भी उन्होंने लोगों को मोटीवेट करना नहीं छोड़ा।
बचपन से ही कई गंभीर बीमारियों से जूझने के बाद भी आयशा पेंटिंग और राइटिंग का शौक रखती थीं। अपने जीवन के आखिरी दिनों में आयशा ने अपनी जिंदगी की कहानी को एक किताब की शक्ल दी, जिसका नाम उन्होंने My Little Epiphanies रखा। किताब की लॉन्चिंग के कुछ घंटों बाद ही उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
क्या है पल्मोनरी फाइब्रोसिस रोग (What is Pulmonary fibrosis)
पल्मोनरी फाइब्रोसिस फेफड़ों से जुड़ी एक गंभीर बीमारी है, जिसका कोई इलाज उपलब्ध नहीं है। हालांकि थेरेपीज और ट्रीटमेंट के द्वारा पल्मोनरी फाइब्रोसिस के मरीज की स्थिति को गंभीर होने से रोका जा सकता है और उनकी जिंदगी बढ़ाई जा सकती है। आमतौर पर इस रोग के होने के बाद व्यक्ति 3 से 5 साल जीते हैं। मगर सही समय पर इलाज के द्वारा इस रोग के बढ़ने की गति को धीमा किया जा सकता है।
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Pulmonary fibrosis रोग होने पर फेफड़ों के टिशूज मोटे होकर डैमेज हो जाते हैं, जिसके कारण ये काम करना बंद कर देते हैं। फेफड़ों के ठीक से काम न करने के कारण व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होती है और धीरे-धीरे उसकी स्थिति नाजुक होती जाती है। एक बार किसी व्यक्ति के फेफड़े खराब हो जाएं, तो इन्हें दोबारा नहीं ठीक किया जा सकता है। इसलिए इसे एक खतरनाक रोग माना जाता है।
केमिकल फैक्ट्रियों और धूल-मिट्टी के आसपास रहने वालों को ज्यादा खतरा
डॉकटर्स और वैज्ञानिक इस बारे में सटीक जानकारी होने से मना करते हैं कि पल्मोनरी फाइब्रोसिस किन कारणों से होता है और किन परिस्थितियों में होता है, मगर ऐसा देखा गया है कि जिन लोगों का इम्यून सिस्टम खराब होता है, इम्यून सिस्टम से जुड़ा कोई रोग होता है, उन लोगों में इस रोग के होने की संभावना ज्यादा होती है। इसके अलावा इस रोग का खतरा उन लोगों को भी होता है, जो केमिकल फैक्ट्रियों के आसपास रहते हैं, उनमें काम करते हैं, उनके धुंएं में सांस लेते हैं या धूल-मिट्टी और जहरीले धुंए के आसपास काम करते हैं। हालांकि इस बीमारी के मरीज कम पाए जाते हैं, मगर फिर भी ऐसे लोगों में इस बीमारी का खतरा बना रहता है।
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