विश्वभर में लगभग 50 लाख लोग पल्मोनरी फाइब्रोसिस नाम की खतरनाक बीमारी के शिकार हैं। भारत में इस बीमारी के बारे में जागरूकता न होने के कारण हजारों लोग हर साल मरते हैं जबकि उनमें से ज्यादातर को इसका पता भी नहीं होता है। दरअसल इस बीमारी के लक्षण इतने सामान्य होते हैं कि लोग इसे नजरअंदाज कर देते हैं। मगर इलाज में देरी और लापरवाही के कारण ये बीमारी जानलेवा साबित होती है। पल्मोनरी फाइब्रोसिस एक ऐसी बीमारी है जिसमें मरीज के फेफड़ों के अंदरूनी ऊतक यानि टिशूज डैमेज हो जाते हैं। इस बीमारी में ऊतक मोटा और सख्त हो जाता है जिससे मरीज के लिए सांस लेना कठिन हो जाता है और इसके रक्त को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिलता है।
बीमारी के लक्षण
टी.बी. और दमा जैसी बीमारियों और फेफड़े की फाइब्रोसिस (पल्मोनरी फाइब्रोसिस) के लक्षणों में काफी समानता होने के कारण कुछ डॉक्टर भी इस बीमारी की पहचान करने में चूक कर जाते हैं। पल्मोनरी फाइब्रोसिस के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं।
- सांस की तकलीफ
- लगातार सूखी खांसी आना
- भूख कम लगना
- बिना किसी कारण के वजन में कमी
- मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द
रोग की जांच
इन लक्षणों के दिखने पर इन्हें सामान्य नहीं समझना चाहिए। अगर ये लक्षण आपको ज्यादा परेशान करते हैं तो तुरंत चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए क्योंकि अगर सही समय से इलाज किया जाए तो इस बीमारी को जड़ से ठीक किया जा सकता है। पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट (पी.एफ.टी.) नामक जांच के जरिए दमा और फेफड़े की फाइब्रोसिस में अंतर आसानी से किया जा सकता है। फेफड़े की फाइब्रोसिस का सटीक पता लगाने के लिये फेफड़े का सी.टी. स्कैन (जिसे एच.आर. सी.टी. के नाम से जाना जाता है) कराया जाता है।
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रोग का इलाज
पल्मोनरी फाइब्रोसिस के गंभीर होने पर फेफड़े मधुमक्खी के छत्ते की तरह दिखने लगते हैं। इसी को हनीकॉम्बिंग कहते हैं। इस अवस्था में ऑक्सीजन देना ही आखरी उपचार बचता है। बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में स्टेरायड, एन-एसिटाइल, सिस्टीन, परफेनिडोन आदि दवाओं का प्रयोग किया जाता है। फेफड़े की फाइब्रोसिस में फेफड़े का प्रत्यारोपण (लंग ट्रांसप्लान्टेशन) भी किया जा सकता है। ऐसा ट्रांसप्लांटेशन हमारे देश में अभी शुरुआती अवस्था में है और अत्यधिक खर्चीला भी हैं। पल्मोनरी फाइब्रोसिस में संक्रमण रोकने के लिये समय-समय पर टीकाकरण
(वैक्सीनेशन) करवाना आवश्यक है। जैसे इन्फ्लूएन्जा हर साल और न्यूमोकोकल वैक्सीन हर पांच साल में डॉक्टर की सलाह के अनुसार लगवाएं।
इन बातों पर दें ध्यान
वैसे तो फेफड़े की फाइब्रोसिस के कारण अज्ञात है,लेकिन ऐसा देखा गया है कि जिन लोगों को गैस्ट्रो इसोफेगियल रीफ्लक्स डिजीज (जी ई आर डी) की समस्या होती है, उनमें फेफड़ों की फाइब्रसिस होने की आशंकाएं ज्यादा होती हैं। कुछ दवाओं के प्रभाव के कारण फेफड़ों की फाइब्रोसिस हो सकती है। जैसे कैंसर की दवाएं। हालांकि मेडिकल साइंस ने अभी तक यह साबित नहीं किया है, लेकिन ऐसा देखा गया है कि प्राणायाम भी फेफड़ों की फाइब्रोसिस के शुरुआती दौर में लाभप्रद हो सकता है। वहीं धूम्रपान करने वाले लोगों में फेफड़ों की फाइब्रोसिस होने की संभावना ज्यादा होती है।
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टी.बी. और फेफड़े की फाइब्रोसिस में अंतर है
टी.बी. की बीमारी में बुखार आता है जबकि पल्मोनरी फाइब्रोसिस में सामान्यत: बुखार नहीं आता है। टी.बी. की बीमारी में खांसी में खून आता है जबकि पल्मोनरी फाइब्रोसिस में सामान्यत: खांसी में खून नहीं आता है। टीबी के मामले में सामान्यत: एक्स-रे में धब्बा ऊपरी हिस्से में पाया जाता है जबकि पल्मोनरी फाइब्रोसिस में सामान्यत: एक्स-रे में धब्बा निचले हिस्से में पाया जाता है। इसके अलावा टीबी के मरीजों के नाखून में कोई परिवर्तन नहीं आता है जबकि पल्मोनरी फाइब्रोसिस की स्थिति में मरीज के नाखून तोते की चोंच की तरह हो जाते हैं। इसके अलावा बलगम की जांच में टी.बी. के जीवाणु मिलने पर ही इसे टी.बी. समझना चाहिए।
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