True Story in Hindi: भारत का पहला पहलू शहरों का है, जहां मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल मिल जाते हैं, एक कॉल पर एम्बुलेंस आ जाती है और टेस्ट की कोई भी रिपोर्ट फोन पर मिल जाती है। वहीं भारत का दूसरा पहलू थोड़ा मायूस करने वाला है, क्योंकि गांव, देहात या आदिवासी इलाकों में आज भी अस्पताल 40-50 किलोमीटर की दूरी पर है। प्रेग्नेंट महिलाओं के चेकअप के लिए कोई साधन नहीं है। बिजली जैसी बुनियादी समस्या से लेकर डॉक्टरों की कमी के चलते लोगों को इलाज नहीं मिल पाता। इसी जद्दोजहद को जब डॉ. संजना ब्रहमावर मोहन (Dr Sanjana Brahmawar Mohan) ने करीब से देखा, तो वह अस्पताल की चारदीवारी से निकलकर गांव और आदिवासी इलाकों की पगडंडियों पर आ गई और लोगों को प्राइमरी हेल्थकेयर सुविधाएं देने लगी। डॉ. संजना राजस्थान के उदयपुर में कई सालों से बालरोग विशेषज्ञ के तौर पर काम कर रही थीं। फिर उनके जीवन में ऐसा क्या हुआ, जो वह अस्पताल की चारदीवारी छोड़कर दूरदराज के आदिवासी इलाकों में पहुंची और वहां के लोगों के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने लगी। आइये जानते हैं, उनकी अस्पताल से शुरू हुई जर्नी कैसे आदिवासी इलाके तक पहुंची।
अस्पताल से निकलकर सोशल वर्क का रुख करने की वजह
इस बदलाव के बारे में बात करते हुए डॉ. संजना ने कहा, "जब मैंने पेडियाट्रिक्स के तौर पर अपना करियर शुरू किया, तो उस समय लगा था कि मेरा जीवन अब अस्पताल में ही बीतेगा। जैसे-जैसे मैंने काम शुरू किया तो मुझे महसूस होने लगा कि जैसे कुछ तो अधूरापन है, लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसी क्या कमी है, जो मुझे इस सफल करियर के बावजूद महसूस हो रही है। ये बैचेनी मुझे और मेरे पति दोनों को हो रही थी और फिर मेरे पति ने पब्लिक हेल्थ में मास्टर किया और मैंने एपिडिमियोलॉजी में पढ़ाई की। इसके बाद जब मैंने कम्युनिटी प्रोग्राम और रिसर्च करना शुरू किया और नेशनल सेंटर फॉर चाइल्ड हेल्थ में काम किया तो तस्वीर साफ होने लगी कि शहरों में हेल्थकेयर सुविधाएं बहुत है, लेकिन झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों के गांवों में आज भी बहुत कुछ वैसा ही है जैसे सालों पहले था। आज भी जब कोई कुपोषित बच्चा अस्पताल में भर्ती होता है, तो उसे खास डाइट देकर ठीक कर दिया जाता है। लेकिन कुछ महीनों बाद फिर वही बच्चा कुपोषित हालात में अस्पताल लौट आता है। जब मैं ये सब देखती थी, तो लगता था कि कोई ऐसा बदलाव चाहिए, जिससे उनकी सेहत लंबे समय तक बेहतर रहे। तब मुझे महसूस होने लगा कि अब मुझे इसी दिशा में काम करना है और ऐसे लोगों को जागरूक करना है। ऐसे बदलाव के लिए मुझे उन लोगों के बीच ही काम करना होगा। बस इस सोच के साथ ही Basic Healthcare Services की शुरुआत हुई।”
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आदिवासी इलाकों में काम करते समय आपको कौन सी मुश्किलें आई?
चुनौतियों के बारे में बात करते हुए डॉ. संजना कहती हैं, "जब हम गांवों या आदिवासी इलाकों में काम करते हैं, तो हर दिन कोई न कोई चुनौती होती है। कभी कोई महिला गंभीर एनीमिया के साथ आती है, तो कोई बच्चा मलेरिया से जूझ रहा है, युवक टीबी से पीड़ित होता है तो कोई टाइप 1 डायबिटीज से पीड़ित है । ऐसी जगहों पर संसाधन बहुत ही कम होते हैं। न तो एक्सरे मशीन होती है और न ही खून की जांच हो पाती, तो ऐसे में हम अपने अनुभव के आधार ही इलाज करते हैं। ऐसी जगह पर काम करते समय टीमवर्क की अहमियत पता चलती है। हमने कई नर्सों को तैयार किया है, जो इन्हीं गांव और आदिवासी इलाकों से आती हैं, वे महिलाओं से बेहतर तरीके से मिल पाती हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि गांव में काम करने वाले डॉक्टरों की उतनी कद्र नहीं होती, जितनी शहरों में काम करने वाले डॉक्टरों की होती है। इससे कई बार देखा कि गांव में काम करने वाले डॉक्टर का मनोबल कम हो जाता है। इसलिए गांव में डॉक्टर को बिजली, पानी और रहने जैसी बेसिक सुविधाएं देने की जरूरत है।”
आदिवासी इलाके में काम करते समय किसी घटना ने आपके दिल को छू लिया हो?
भावुक होते हुए डॉ. संजना ने बताया, "वैसे तो रोजाना कोई न कोई ऐसी वाक्या जरूर होता है, जो एक नई एनर्जी भर देता है। लेकिन टीबी रोगी की घटना ने मेरे मन को छू लिया था। दरअसल जब एक टीबी रोगी हमारे पास आया तो उसका वजन 30 किलो से भी कम था। उसके बचने का चांस लगभग कम थे। हमने उसकी बीमारी और डाइट दोनों पर काम किया, और इसका नतीजा यह हुआ कि उसका न सिर्फ 20 किलो वजन बढ़ा बल्कि टीबी से भी मुक्त हुआ। फिर हमने उसके स्किल को पहचानकर उसे दर्जी की ट्रेनिंग दिलवाई और आज वह एक दर्जी की दुकान पर काम करके अपने परिवार को संभाल रहा है।”
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कोई ऐसी घटना जिस पर समाज को जागरूक करने की जरुरत है
संजना ने काफी दुखी मन से बताया, “आदिवासी और गांवों में महिलाओं की सेहत को बिल्कुल नजरअंदाज किया जाता है। जब वे प्रेग्नेंट होती हैं, तो वे गंभीर रूप से एनीमिया, हाई बीपी या किसी न किसी गंभीर समस्या से जूझ रही होती हैं। ऐसी महिलाओं को अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत होती है, लेकिन उनका परिवार अस्पताल नहीं लेकर जाता और बुजु्र्गं महिलाएं हमें कहती हैं कि अगर ये चली भी जाएगी, तो दूसरी ले आएंगे। महिलाओं की सेहत को लेकर इस तरह की सोच मन को बहुत कचोटती है।”
आदिवासी महिलाओं को नर्स बनाने का क्या कारण था?
इस बारे में बात करते हुए डॉ. संजना कहती हैं,"जब हमने इस दिशा में काम शुरू किया, तो हमारा मकसद था कि हम प्राइमरी हेल्थकेयर सविधाएं बहुत ही दूर के गांवों में देंगे। ऐसे इलाकों में हम 24X7 सुविधाएं होंगी और सभी की स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का समाधान होगा। जब हम काम करने लगे, तो डॉक्टरों की कमी महसूस होने लगी। हमारे पास इतने डॉक्टर नहीं थे, कि वे हर जगह मौजूद हो। ऐसे स्थिति में हमें लगा कि नर्सों का होना बहुत जरूरी है। नर्स को हम ट्रेनिंग दे सकते हैं और अगर वो गांव की होगी तो कम्युनिटी से जुड़कर आसानी से काम कर पाएंगी। आदिवासी इलाके में नर्सों को ट्रेनिंग देने की एक वजह भाषा भी थी। लोगों की समस्याओं को आसानी से समझने के कारण आदिवासी लोगों के बीच आसानी से विश्वास बन पाता है। नर्सें बहुत ईमानदार और लगन से काम करती है। हर गाइडलाइन फॉलो करती है और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर से संपर्क करती हैं। तो हमारी टीम में डॉक्टर, नर्स और कम्युनिटी के लोग है, जो मिलकर काम करते हैं।
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आदिवासी नर्स के साथ कौन सी चुनौतियां सबसे ज्यादा होती हैं?
संजना कहती हैं, “आदिवासी महिलाओं की सेहत हो, या उन्हें लेकर किसी भी तरह का कोई फैसला करना हो, ये सब परिवार के पुरुष ही करते हैं। ऐसे में कई बार नर्स पर परिवार का बहुत प्रेशर होता है कि वह काम छोड़ दें और घर संभालें। ये परेशानी हमें काफी ज्यादा आ रही है, इसलिए हमने Women LiftHealth के जरिए नर्सों के लिए लीडरशिप प्रोग्राम शुरू किया है, ताकि वे खुद को सक्षम और सशक्त कर सकें। अपने स्वास्थ्य के साथ कम्युनिटी की हेल्थ को भी बेहतर बना सके।”
डॉक्टर्स के लिए संदेश
डॉ. संजना कहती हैं, “आजकल मेडिसन प्रेक्टिस बहुत जटिल हो गई है। अब नए टेस्ट, नई दवाइयां और प्रक्रियाएं आ गई है, जो कुछ दशक पहले तक डॉक्टर्स के पास नहीं थी। लेकिन इन नई तकनीकों का सही तरीके से इस्तेमाल तभी हो सकता है, अगर डॉक्टर एक दूसरे के एक्सपर्ट एरिया से जुड़े तो बेहतरीन काम हो सकता है। हर डॉक्टर को संतोष मिलता है, जब वह किसी का जीवन बचाता है।
कई डॉक्टर मुझसे कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज में सेवा और इंसानियत सिखाई जाती है, लेकिन असल जिंदगी में कॉरपोरेट प्रेशर, फार्मा कंपनी का दबाव देखने को मिलता है। तो मैं हमेशा कहती हूं कि हार मत मानें और उन संस्थाओं में काम करें जो ईमानदारी के साथ काम करती है।