
पब्लिक हेल्थ इंग्लैण्ड के अनुसार धूम्रपान छोड़ने के इच्छुक वयस्कों के लिये ईएनडीएस एक अच्छा विकल्प है, क्योंकि उनका शोध कहता है कि यह पारंपरिक धूम्रपान की तुलना में 95 प्रतिशत तक कम हानिकारक है।
भारत को कई मोर्चों पर स्वास्थ्य रक्षा की लड़ाई लड़नी है। भारत स्वास्थ्य रक्षा पर अपने जीडीपी का केवल 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, यहां कैंसर से होने वाली मौतों की संख्या खतरे के निशान से बहुत ऊपर है। वर्ष 2018 में भारत विश्व में तंबाकू का दूसरा सबसे बड़ा सेवनकर्ता बन गया और यहां प्रतिवर्ष तंबाकू से लगभग 1.35 मिलियन लोगों की मृत्यु होती है। फेफड़े का कैंसर भारत में सबसे आम में से एक है, जिसकी हिस्सेदारी देश में कैंसर के सभी नये मामलों में 5.9 प्रतिशत है। फेफड़े के कैंसर के लगभग 95 प्रतिशत मामलों का श्रेय तंबाकू के सेवन को जाता है और इससे स्वास्थ्य को अन्य गंभीर समस्याएं भी होती हैं।
अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अध्ययनों से साबित हुआ है कि जलने वाली तंबाकू वाले उत्पाद कैंसर के सबसे बड़े कारक हैं। दुर्भाग्य से भारत में तंबाकू नियंत्रण के कई उपाय करने के बावजूद सिगरेट का सेवन अपेक्षित रूप से कम नहीं हुआ है। भारत में सिगरेट का परिमाण केवल 2.2 प्रतिशत की दर से कम हुआ है, जबकि विगत आठ वर्षों में सिगरेट का मूल्य 3.5 गुना बढ़ा है।
भारत में तंबाकू की समस्या के कई आयाम हैं, जैसे धूम्रपान के लिये कम मूल्य वाले उत्पादों की उपलब्धता से लेकर कमजोर विनियमन। उत्पादन से लेकर निर्माण, उपभोग से लेकर निर्यात तक तंबाकू से भारत की लड़ाई को कमजोर विनियामक नीतियों ने क्षति पहुंचाई है। इस स्थिति में भारत को तंबाकू से लड़ने के लिये मजबूत वैज्ञानिक प्रमाण पर आधारित नीतियां चाहिये। हमें प्रमाण-आधारित अध्ययनों से शक्ति प्राप्त विनियामक सुधार चाहिये, ताकि प्रभावपूर्ण समाधान की दिशा में कार्य हो सके।
समाधान के लिये विज्ञान का रुख करना
समस्या को सम्बोधित करने के लिये रोगियों के व्यवहार और जीवनशैली को समझना जरूरी है। धूम्रपान करने वाले लोग रसायनों, कैंसरकारकों और श्वसन के लिये विष की भांति कार्य करने वाले तत्वों के संपर्क में आते हैं, जो तंबाकू जलने से उत्पन्न होते हैं। धूम्रपान से सांस की नली को क्षति होती है और फेफड़ों की एल्वीयोलि खराब होती है, इस कारण फेफड़े का कैंसर और क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज (सीओपीडी) होती हैं, जिनमें एम्फीसेमा, क्रॉनिक ब्रॉन्काइटिस और जलन शामिल हैं। धूम्रपान करने से सांस में जाने वाला निकोटिन लत पैदा करने वाला तत्व होता है, लेकिन तंबाकू के धुएं में मौजूद विषैले तत्वों और कार्सिनोजन से रोग और मौत होती है, निकोटिन से नहीं।
यदि हम तंबाकू-विरोधी अभियानों का इतिहास देखें, तो कर में वृद्धि से लेकर तंबाकू छोड़ने पर जोर देने वाली रणनीतियों तक, अनगिनत प्रयास धूम्रपान करने वालों की संख्या घटाने में विफल हुए हैं। तंबाकू के सेवन के समाधान के तौर पर अक्सर एक ही शब्द कहा जाता है- छोड़ दें। इसमें कोई दोराय नहीं है कि धूम्रपान छोड़ने से लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हो सकता है, लेकिन उनके लिये क्या करें, जो धूम्रपान छोड़ नहीं सकते? इसका उत्तर है- प्रमाण-आधारित समाधान।
लंबी अवधि तक धूम्रपान करने वाले लोगों को निकोटिन की लत होती है, वे एकदम से इसे नहीं छोड़ सकते। जो व्यक्ति वर्षों से धूम्रपान कर रहा है, उस पर ‘तंबाकू छोड़ो’ मुहिम का प्रभाव नहीं होता है। अधिकांश मामलों में लोगों के पास धूम्रपान छोड़ने की इच्छाशक्ति नहीं होती है। हमें तंबाकू से होने वाली हानि को कम करने की रणनीति चाहिये, जिसमें निकोटिन के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग शामिल है। इस आइडिया को कई देशों ने अपनाया है, ताकि तंबाकू के सेवन से होने वाले जोखिम कम हो सकें।
लक्ष्य है वैज्ञानिक प्रमाण को देखना और ऐसे समाधानों को समझना, जिन्होंने विश्वभर के देशों को प्रभावित किया है। उदाहरण के लिये इलेक्ट्रॉनिक निकोटिन डिलीवरी सिस्टम्स (Electronic Nicotine Delivery Systems) या ईएनडीएस निकोटिन का वैकल्पिक स्रोत देते हैं और यूजर टार, कैंसरकारकों और विषैले तत्वों के संपर्क में आने से बच जाता है, जो कि सिगरेट के धुएं में पाए जाते हैं।
ई-सिगरेट्स और जलती तंबाकू वाली सिगरेट्स में अंतर करने में हम फेल हुए हैं। परिणामस्वरूप, दोनों पर समान प्रतिबंध लगाए जाते हैं। ई-सिगरेट्स को तंबाकू वाला उत्पाद बताने का प्रयास भी हुआ है, क्योंकि निकोटिन तंबाकू से लिया जाता है। यह निर्णय तर्कविहीन है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
ऐसे देशों में धूम्रपान में कमी देखी गई है, जहां ईएनडीएस के विनियमन समेत तंबाकू से होने वाली हानि को कम करने के सिद्धांत पर काम हुआ है और इस काम के साथ तंबाकू नियंत्रण की मौजूदा नीतियों को जोड़ा गया है। कैसे कहें धूम्रपान को गुड बाय
ईएनडीएस से स्वास्थ्य कैसे प्रभावित होता है और यह कैसे सुरक्षित हैं, इस पर विश्व भर में बहस चल रही है, लेकिन यह दिखाने के लिये पर्याप्त प्रमाण है कि यह उत्पाद सिगरेट्स की तुलना में कम हानिकारक हैं। विश्व की कई अन्य सरकारों के साथ यूके और कनाडा लंबे समय से धूम्रपान के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव को लेकर सचेत हैं और उन्होंने उसी के अनुसार कार्य किया है। हालांकि उन्होंने माना कि सही विनियमन के साथ ईएनडीएस को अपनाने से सार्वजनिक स्वास्थ्य की यह समस्या कम हो सकती है, बजाए इसके कि पूर्णतया प्रतिबंध लगाया जाए। एनएचएस के अनुसार यूके में अब धूम्रपान और तंबाकू से होने वाली मृत्यु की दर अपने निम्नतम स्तर पर है और लगातार घट रही है। (स्रोतः एनएचएस यूके)
पब्लिक हेल्थ इंग्लैण्ड के अनुसार धूम्रपान छोड़ने के इच्छुक वयस्कों के लिये ईएनडीएस एक अच्छा विकल्प है, क्योंकि उनका शोध कहता है कि यह पारंपरिक धूम्रपान की तुलना में 95 प्रतिशत तक कम हानिकारक है।
न्यूजीलैण्ड जैसे कुछ देशों ने तो विनियमन से आगे बढ़कर लोगों को वैपिंग के लाभ और हानि बताने के लिये प्रोग्रामैटिक इंटरवेशंस लॉन्च किये हैं। वर्ष 2025 तक न्यूजीलैण्ड को धूम्रपान मुक्त बनाने के अपने लक्ष्य में स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल ही में धूम्रपान करने वालों को ईएनडीएस पर जागरूक करने और प्रोत्साहन के लिये वैपिंग फैक्ट्स नामक अभियान और वेबसाइट लॉन्च की है। यह वेबसाइट वैपिंग से सम्बंधित भ्रांतियों को स्पष्ट करती है और बताती है कि इसे अपनाने से विषैले तत्वों से बचा जा सकता है, कैंसर समेत हृदय और फेफड़े के रोगों का जोखिम कम किया जा सकता है और इसका आस-पास मौजूद लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता है।
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हमारे देश में सरकार स्थानीय दुकानों पर बिना जांच किये सिगरेट की बिक्री की अनुमति देती है, यह दुकानें प्रत्येक 100 मीटर की दूरी पर पाई जा सकती हैं, बच्चों और अवयस्कों को बिना पहचान के सिगरेट बेची जाती हैं और फिर भी सरकार ई-सिगरेट्स को प्रतिबंधित करना चाहती है, जो धूम्रपान करने वालों को कैंसरकारकों से बचा सकती हैं और एक विकल्प बन सकती हैं।
दुर्भाग्य से, किसी भी प्रकार के प्रतिबंध के बड़े नकारात्मक और अनचाहे परिणाम होते हैं, वह निष्प्रभावी तो होता ही है। प्रतिबंध से बाजार को क्षति होती है, गैर-कानूनी गतिविधियाँ तेज होती हैं, राजस्व कम होता है, रोजगार और आजीविका की हानि होती है, भ्रष्टाचार बढ़ता है और अंततः उन्हीं लोगों का नुकसान होता है, जिनकी सुरक्षा के लिये प्रतिबंध होता है, क्योंकि लागूकरण की लागत प्रतिबंध के लाभों से अधिक होती है।
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स्वास्थ्यरक्षा जटिल क्षेत्र है। इसकी चुनौतियों को सम्बोधित करने वाले समाधान भी जटिल हैं। तंबाकू की समस्या को सम्बोधित करने के प्रयासों को गति देने के लिये हमें वैज्ञानिक समाधान चाहिये। धूम्रपान की लत वाले रोगियों के उपचार में ‘‘छोड़े या मरो’’ का नारा नुकसान करेगा। हमें उन विकल्पों के प्रभाव पर ध्यान देना चाहिये, जो जोखिम को कम करते हैं। विश्वसनीय विकल्प के बिना लोगों से तंबाकू की लत छोड़ने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तंबाकू की समस्या कम करने और देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य के आंकड़ों में सुधार के लिये हमें सुलभ विकल्पों के उपयोग में संभावनाएं ढूंढनी चाहिये।
Inputs: डॉ. समीर कौल, वरिष्ठ परामर्शदाता, ऑन्कोलॉजी एवं रोबोटिक्स, अपोलो कैंसर इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली
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