भारत में सदियों से चली आ रही कई परंपराएं और रिवाजों में से एक है नदियों में सिक्के फेंकने की प्रथा। इसे शुभ और धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाता है और माना जाता है कि इससे मनोकामनाएं पूरी होंगी और सब अच्छा होगा। आपने भी पवित्र नदियों में अक्सर लोगों को सिक्के फेंकते हुए देखते हैं। इस परंपरा का संबंध धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है, जहां लोगों का मानना है कि ऐसा करने से उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और पुण्य प्राप्त होता है। ऐसे में कई लोग होते हैं जो दूसरों को देखकर बिना कुछ सोचे-समझे ऐसा करना शुरू कर देते हैं तो वहीं कुछ लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि क्या नदियों में सिक्के फेंकना एक अंधविश्वास है या इसके पीछे कोई वास्तविक वैज्ञानिक कारण है? क्या इस तरह के विश्वासों के पीछे कोई वैज्ञानिक या आयुर्वेदिक आधार है? इस बारे में ज्यादा जानकारी के लिए हमने रामहंस चेरिटेबल हॉस्पिटल के आयुर्वेदिक डॉक्टर श्रेय शर्मा (Ayurvedic doctor Shrey Sharma from Ramhans Charitable Hospital) से बात की-
वर्तमान समय में कई ऐसे अंधविश्वास हैं, जिन्हें लोग सच मानते आ रहे हैं। ऐसे ही मिथकों और अंधविश्वास के पीछे छिपे साइंस के बारे में बताने के लिए ओनलीमायहेल्थ "अंधविश्वास या साइंस" सीरीज चला रहा है। इस सीरीज के तहत हम आपको ऐसे ही अंधविश्वासों से जुड़े साइंस और वैज्ञानिक तथ्य बताने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। इस सीरीज में आज हम आयुर्वेदिक डॉक्टर श्रेय शर्मा से जानते हैं कि नदियों में सिक्के फेंकने के पीछे का वैज्ञानिक कारण क्या है।
नदियों में सिक्का फेंकने की परंपरा
प्राचीन काल में, ज्यादातर सिक्के तांबे से बनाए जाते थे। भारतीय परंपराओं के अनुसार, तांबे के बर्तन में पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता था। ऐसा इसलिए, क्योंकि तांबा पानी के कीटाणुओं को खत्म करता है और उसे शुद्ध बनाता है। इसी तरह, जब लोग नदियों में तांबे के सिक्के फेंकते थे, तो इसका मुख्य कारण नदी के पानी को शुद्ध करना होता था। ऐसा इसलिए, क्योंकि लोग सीधे नदी का पानी पीते थे।
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सिक्के फेंकने की इस परंपरा का धार्मिक महत्व भी है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में नदियों को पवित्र माना गया है, लोग मानते हैं कि नदियों में सिक्के फेंकने से उनके पापों का नाश होता है और उन्हें पुण्य की प्राप्ति होती है। कई लोग इसे भगवान को भेंट चढ़ाने के रूप में भी देखते हैं।
तांबे के लाभ
तांबा कीटाणु और बैक्टीरिया को खत्म करने में सक्षम है। इसका सीधा मतलब है कि तांबा उस समय के लिए बहुत फायदेमंद था जब लोग नदी का पानी सीधे पीते थे और तांबे के सिक्के फेंकने से नदी का पानी शुद्ध होता था। यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही था कि तांबे के सिक्के नदियों में डालने से पानी को शुद्ध रखने में मदद मिलती थी, जिससे लोग बीमारियों से बच सकते थे।
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वर्तमान में सिक्के फेंकने का प्रभाव
समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। आज हम न तो तांबे के सिक्कों का प्रयोग करते हैं और न ही नदियों का पानी सीधे पीते हैं। आज के अधिकांश सिक्के तांबे के बजाय अन्य धातुओं से बने होते हैं जिनमें कोई विशेष एंटीमाइक्रोबियल गुण नहीं होते। इसके अलावा, आज हम घरों और शहरी इलाकों में रहने वाले लोग नदियों का पानी पीने की बजाय पाइपलाइन या बोतलबंद पानी का उपयोग करते हैं।
इसके बावजूद, सिक्के फेंकने की यह परंपरा अब भी कई जगहों पर जारी है। लेकिन इस परंपरा का आज के समय में एक दूसरा पहलू भी है, जो पर्यावरणीय प्रदूषण है। नदियों में सिक्कों के फेंकने से प्रदूषण बढ़ता है। यह हमारे जल स्रोतों के लिए हानिकारक हो सकता है और इससे नदियों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
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क्या आज के समय में भी नदियों में सिक्के फेंकना चाहिए?
इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह परंपरा धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों स्तरों पर गहरी जुड़ी हुई है। लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि आज के समय में सिक्के फेंकने से क्या लाभ हो रहा है। जब विज्ञान यह साबित कर चुका है कि तांबे के सिक्के फेंकना उस समय फायदेमंद था, जब लोग सीधे नदी का पानी पीते थे, तो आज इसका उद्देश्य खत्म हो गया है। साथ ही, सिक्कों के कारण होने वाला प्रदूषण भी एक गंभीर समस्या है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अगर हम अपनी पुरानी परंपराओं का पालन करना चाहते हैं, तो हमें उन्हें नए सिरे से सोचने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, तांबे के बर्तनों का उपयोग बढ़ाना, जल प्रदूषण को रोकने के लिए जागरूकता फैलाना और धार्मिक स्थलों पर सफाई को बढ़ावा देना। इससे न केवल हमारी परंपराओं का सम्मान होगा, बल्कि पर्यावरण की भी सुरक्षा हो सकेगी।
निष्कर्ष
नदियों में सिक्के फेंकने की परंपरा आज के समय में न केवल अंधविश्वास की ओर इशारा करती है, बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हो सकती है। विज्ञान के अनुसार, तांबे का प्रयोग फायदेमंद हो सकता है, लेकिन सिक्कों के रूप में नदियों में फेंकना अब जरूरी नहीं है। समय आ गया है कि हम इस परंपरा को एक नई सोच के साथ देखें।
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