गर्भ में शिशु की रक्षा मां का इम्यून सिस्टम करता है, इसलिए शिशु स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। मगर जन्म होने के बाद शिशु को तमाम तरह के वायरस-बैक्टीरिया का सामना करना पड़ता है। शुरुआती कुछ सालों में शिशु के शरीर में इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा तंत्र) इतना विकसित नहीं होता है कि बाहरी बैक्टीरिया-वायरस आदि से शिशु की रक्षा कर सके। इसलिए गंभीर रोगों से बचाने के लिए शिशु को कुछ इंजेक्शन लगाए जाते हैं, जिन्हें टीका कहते हैं। जन्म के बाद शिशु के लिए उसका टीकाकरण बहुत जरूरी है। टीकाकरण ( इम्युनाइजेशन ) एक प्रक्रिया है, जिसके जरिए किसी भी व्यक्ति को संक्रामक रोगों से लड़ने की शक्ति मिलती है। इन्ही जरूरी टीकों में से एक है पोलियो का टीका, जो कि बच्चे के लिए बहुत जरूरी होता हैैै। आइए जानते हैैं क्यों?
पोलियो का टीका क्यों है जरूरी?
देश में पोलियो को जड़ से मिटाने के लिए हर 24 अक्टूबर को विश्व पोलियो दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य है कि कोई बच्चा पोलियो की खुराक लेने से वंछित न रहे। पोलियो एक ऐसा संक्रामक रोग है, जो बच्चे केे मुंह के जरिए शरीर में प्रवेश करता है और तंत्रिका तंत्र तक पहुंच जाता है। जिसके बाद यह काफी तेजी से लकवे या बच्चे को अपंग बना सकता है। इसके चलते मौत का खतरा भी हो सकता है। हालांकि भारत को पोलियोमुक्त राष्ट्र घोषित किया जा चुका है, लेकिन फिर भी जन्म से 5 साल तक के बच्चे के लिए अभी भी पोलियो का टीकाकरण जरूरी है। आइए आगे जानते हैैं कि शिशु के लिए टीकाकरण काािकितना महत्व है।
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शिशु के लिए क्यों जरूरी है टीका लगाना
टीका को ही आम बोलचाल की भाषा में इंजेक्शन भी कहते हैं। टीके के माध्यम से बीमार इंसान अपने शरीर को प्रतिरोधी बनाता है। इसके साथ ही शरीर में एडेफेन्सेमेनिज्म विकसित करने में भी मदद मिलती है। अगर किसी के भी शरीर में कोई भी संक्रमण है तो टीकाकरण होने के बाद उसके शरीर में लड़ने की पर्याप्त क्षमता आ जाती है। संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए टीकाकरण एक बहुत ही अच्छा उपाए है। इसके जरिए रोगों को नियंत्रित और समाप्त करने में काफी मदद मिलती है। टीकाकरण एक कॉस्ट इफेक्टिव हेल्थ इंवेस्टमेंट है और कई रिपोर्ट भी इस बारे में दावा करती हैं।
किन रोगों से बचाते हैं टीके
- टीबी
- काली खांसी (डीप्थीरिया)
- हेपेटाइटिस ए
- हेपेटाइटिस बी
- खसा, मम्प्स और रुबेला
- पोलियो
- रोटावायरस
- टायफॉइड
- टिटनस
- चिकनपॉक्स (छोटी माता)
- एनफ्लुएंजा टाइप ए
- मेनिन्जाइटिस
- निमोनिया
हर साल 25 लाख बच्चों की बचती है जिंदगी
टीकाकरण के कारण हर साल लगभग 2.5 मिलियन (25 लाख) लोगों की जिंदगी सेफ होती है। इसमें 5 साल से कम उम्र के बच्चे शामिल हैं। चेचक जैसी बीमारी जिसने दुनिया भर में मौतों का एक भंवर पैदा किया, अब प्रभावी टीकाकरण के माध्यम से पूरी तरह से समाप्त हो गया है। इसके साथ ही टीकाकरण के कारण पोलियो जैसी बीमारियों से भी काफी राहत मिली है, लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि टीकाकरण कैसे प्रयोग में आया और यह देश की जनता के लिए कैसे संजीवनी बन गया आइए जानते हैं।
कैसे हुई टीकों की शुरुआत
आज से काफी समय पहले स्मॉल पॉक्स ( चेचक ) से छुटकारा पाने के लिए वैक्सीन की खोज की गई थी। वहीं, चीन, सूडान और कुछ यूरोपीय देशों में पहले से ही टीकाकरण की प्रथाएं लोकप्रिय थीं। इसके साथ ही इनोक्यूलेशन के माध्यम से रोगग्रस्त व्यक्ति को स्वस्थ बनाने की प्रक्रिया है। इनोक्यूलेशन और वैक्सिनेशन में एक बड़ा अंतर यह है कि इनोक्यूलेशन जिसको लगाया गया। वही लोग बीमरी के वाहक बनने के साथ ही उन लोगों की मौत हो गई और वैक्सिनेशन में सबसे बड़ा बदलाव साल 1790 में देखने को मिला है। 1790 के दशक में, एडवर्ड जेनर को एक 13 साल के लड़के के बारे में पता चला, जिसको चेचक की बीमारी थी। उसके कुछ ही महीनों के बाद उनको पता चला कि लड़के ने चेचक के लिए प्रतिरक्षा विकसित की थी। इस केस के बाद उन्होंने कई और रोगियों के साथ इस तरह के केस देखे और उनके साथ कई नए तरह के प्रयोग किए, जिसके बाद आर्म टू आर्म टीकाकरण द्वारा चेचक के बारे में पता चला और उन्होंने इससे बचने के लिए टीकाकरण बनाया। एडवर्ड जेनर को दुनिया में सबसे अधिक मानव जीवन बचाने वाले व्यक्ति के रूप में माना जाता है
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वहीं, बाद में लुई पाश्चर ने इस टीकाकरण को आगे बढ़ाया। इसके साथ ही रोगाणु सिद्धांत ने माइक्रोबियल विज्ञान की दुनिया में क्रांति ला दी। इसके साथ ही चिकन और हैजा जैसे टीकों की खोज करके उन्होंनेइम्यूनोलॉजी की दुनिया काफी बड़े बदलाव किए और यह क्रांति लाने वाली खोज साबित हुई। यह पहला लाइव अटेंडेड वैक्सीन था, जिसके जरिए इंसान को बचाया जा सकता था। पाश्चर के द्वारा बनाए गए टीकों ने आधुनिक दवाओं की दुनिया में अपनी एक नई जगह बनाई है, क्योंकि इन टीकों से अभी भी खसरा, कण्ठमाला, रूबेला, चिकन पॉक्स और कुछ प्रकार के इन्फ्लूएंजा जैसे रोगों को रोकने में उपयोग किए जा रहे हैं।
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20 वीं शताब्दी में स्वास्थ्य कार्यक्रमों में नए टीके लगाए गए थे। इसके साथ ही इसमें डिप्थीरिया (1926), पर्टुसिस (1914) और टिटनेस (1938) से बचाने वाले टीकों को शामिल थे। इन तीन टीकों को 1948 में संयोजित किया गया था और इसको DTP वैक्सीन के रूप दिया गया था। वहीं, साल 1955 में पोलियो वैक्सीन का लाइसेंस दिया गया। यह लाइसेंस मिलने के बाद देश में इस तरह की बीमारियों पर काफी तेजी से रोक लगाई जा रही है। फिलहाल अब इसका विस्तार WHO द्वारा बनाई गई टीम के द्वारा किया जा रहा है, जिसके जरिए 25 से अधिक बीमारियों से बचा जा सकेगा।
यह लेख डॉ.बिनीता प्रियंबदा (सीनियर कसंलल्टेंट, मेडिकल टीम, डॉकप्राइम.कॉम) द्वारा सुझाए गए टिप्स पर आधारित है।
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