
राजस्थान के एक छोटे से गांव में एक महिला हैं। नाम है- ज्योति कुमारी। इन्होंने पढ़ना-लिखना भले नहीं सीखा, लेकिन एक ऐसा महत्वपूर्ण फैसला लिया, जो उनके और उनके आने वाले बच्चे के भविष्य के लिए बहुत संवेदनशील था। इन्होंने अपने परिवार में पीढ़ियों से चली आ रही प्रेग्नेंसी से जुड़ी खाने-पीने की गलत धारणाओं को पीछे छोड़कर, अपने इलाके में मौजूद फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स की दी गई वैज्ञानिक और सही पोषण जानकारी पर भरोसा किया।
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आंगनवाड़ी दीदी को उनके परिवार का विश्वास जीतने में काफी समय लगाया। उन्होंने ज्योति और उनके परिवार को बार-बार समझाया, ताकि ज्योति खुद अपने और बच्चे के लिए सही फैसला ले सकें। ज्योति मान गईं औ इसका नतीजा यह हुआ कि प्रेग्नेंसी के दौरान उनका वजन स्वस्थ रूप से 8.2 किलोग्राम बढ़ा।
यह सिर्फ एक अच्छा वजन नहीं था, बल्कि यह एक पीढ़ीगत कुपोषण के चक्र को तोड़ने का एक बड़ा कदम था। उनकी जागरूकता और हिम्मत ने उसे सिर्फ एक स्वस्थ बच्चे का जन्म देने में मदद नहीं की, बल्कि भारत भर में मातृ स्वास्थ्य के बेहतर मॉडल की दिशा भी दिखाई।
ज्योति की कहानी अकेली नहीं है। यह एक बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट और उसके समाधान की झलक है।
समस्या कितनी बड़ी है?
भारत में हर दो में से एक बच्चा Small Vulnerable Newborn (SVN) की श्रेणी में आता है। ऐसे बच्चे जन्म के बाद मौत के ज्यादा जोखिम में रहते हैं। इसके अलावा इन्हें आगे चलकर विकास में देरी, बीमारी और कमजोर स्वास्थ्य का सामना भी करना पड़ता है।
यह नुकसान गर्भ में ही शुरू हो जाता है। प्रेग्नेंसी वह समय है जब बच्चे का भविष्य तय होता है। मां के पोषण को मापने का सबसे साफ संकेत है- Gestational Weight Gain (GWG), यानी गर्भावस्था के दौरान वजन कितना बढ़ा।
बहुत कम वजन बढ़ने से प्री-मेच्योर डिलीवरी और कम वजन वाले बच्चे के जन्म का खतरा बढ़ता है। वहीं बहुत ज्यादा वजन बढ़ जाए, तो भी खतरनाक है। इससे जेस्टेशनल डायबिटीज और हाई बीपी का खतरा बढ़ता है, साथ ही सिजेरियन डिलीवरी के चांस बढ़ जाते हैं।
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भारत में ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत ज्यादा है, जिनका वजन प्रेग्नेंसी से पहले बहुत कम होता है। इनमें से भी कई महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान भी पर्याप्त वजन हासिल नहीं कर पातीं, जिसका असर उनके साथ-साथ उनके गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी पड़ता है।
प्रेग्नेंसी के दौरान कितना वजन होना चाहिए?
अब आपके मन में भी यह सवाल आ रहा होगा कि आखिर प्रेग्नेंसी में सही वजन होना कितना चाहिए? तो इसका जवाब कोई सॉलिड नंबर नहीं है। यह हर किसी के लिए अलग-अलग हो सकता है। अच्छी डाइट, जरूरी माइक्रोन्यूट्रिएंट्स और हेल्दी लाइफस्टाइल के साथ, जो भी वजन बढ़ता है, वही आपके लिए सही वजन है। रिसर्च यह भी बताती है कि अगर किसी महिला का वजन प्रेग्नेंसी के दौरान जरूरत से ज्यादा है, तो इसे भी सही सलाह, डाइट में वरायटी और सेफ फिजिकल एक्टिविटीज की मदद से नियंत्रित किया जा सकता है।
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किस समय पड़ती है सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत?
पुणे में हुई Mother and Infant (MAI) cohort study में यह पाया गया कि प्रेग्नेंसी से पहले और शुरुआती प्रेग्नेंसी के दौरान मां का पोषण स्तर बच्चे के जन्म के वजन और उसके विकास पर गहरा असर डालता है। क्लीनिकल तौर पर मिड प्रेग्नेंसी यानी लगभग 28 सप्ताह के दौरान बदलाव करने को सबसे अहम समय माना गया। यही कारण है कि हेल्दी प्रेग्नेंसी के लिए प्रीकॉन्सेप्शन और एंटेनेटल केयर पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
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भारत में क्या प्रयास हो रहे हैं?
भारत के अलग-अलग राज्यों में सरकारें इसी पहल को लेकर कुछ प्रयोग कर रही हैं, जो इस प्रकार हैं:
उत्तर प्रदेश की सुहाग किट और बिहार की नई पहल किट नवविवाहित जोड़ों को पौष्टिक उत्पाद और सही मार्गदर्शन देकर उनकी पहली प्रेग्नेंसी को सुरक्षित और योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाने में मदद करती हैं।
महाराष्ट्र का वात्सल्य कार्यक्रम गर्भधारण से लेकर बच्चे के पहले 1000 दिनों तक मां और शिशु दोनों के पोषण और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देता है।
राजस्थान का राजपुष्ट मॉडल “कैश प्लस” दृष्टिकोण पर आधारित है, जिसमें आर्थिक सहायता, पौष्टिक आहार, नियमित वजन जांच और परामर्श जैसी सेवाएं शामिल हैं।
वहीं VHSNDs और Poshan Abhiyaan जैसे कार्यक्रम समुदाय के स्तर पर परिवारों और पुरुषों को भी जोड़ते हुए प्रीकॉन्सेप्शन काउंसलिंग को बढ़ावा दे रहे हैं।
इन सभी पहलों की खासियत यह है कि ये कम लागत में महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान बेहतर पोषण और देखभाल उपलब्ध कराती हैं, जिससे उनका वजन और स्वास्थ्य स्वाभाविक रूप से बेहतर होता है।
भारतीय शरीर के अनुरूप होनी चाहिए गाइडलाइन
PDS, ICDS, POSHAN Abhiyan और खाद्य फोर्टिफिकेशन जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए सरकारें यह तय करती हैं कि महिलाओं की थाली में क्या-क्या होगा। अगर इन योजनाओं में दाल, दूध, अंडे और मिलेट्स जैसी पौष्टिक चीजों को प्राथमिकता दी जाए, तो महिलाओं के लिए स्वस्थ गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ाना (GWG) कहीं आसान हो सकता है।
REVAMP Study (Pune) और GARBHINI Cohort Study (Haryana) यह साफ दिखाती हैं कि दुनिया भर में बनी पोषण गाइडलाइंस हमेशा भारतीय शरीर और जीवनशैली पर लागू नहीं होतीं। हमारे खानपान, मौसम और संस्कृति को ध्यान में रखकर भारत को अपनी स्थानीय और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त पोषण गाइडलाइंस बनानी होंगी।
अगर बाजार में सस्ता और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाना ही आसानी से मिलेगा, तो नतीजा या तो खराब पोषण होगा या फिर जरूरत से ज्यादा और अस्वस्थ वजन बढ़ेगा।

खराब वजन बढ़ाता है क्रॉनिक बीमारियों का खतरा
ICMR-INDIAB स्टडी के मुताबिक, डायबिटीज और मेटाबॉलिक डिसऑर्डर अब सिर्फ अमीरों की समस्या नहीं रहे। ये अब हर वर्ग की महिलाओं में तेजी से बढ़ रहे हैं। कई नॉर्मल वजन वाली महिलाएं भी बिना जाने हाई BP या डायबिटीज के साथ प्रेग्नेंट हो रही हैं।
दिल्ली में हुए WINGS Trial में एक कॉम्बिनेशन पैकेज ट्राई किया गया, जिसमें हेल्थ, न्यूट्रिशन, हाइजीन और मेंटल हेल्थ को साथ जोड़ा गया था।
रिजल्ट्स ने दिखाया कि महिलाओं में स्वस्थ प्रेग्नेंसी के लिए सिर्फ एक सॉल्यूशन (डाइट) काफी नहीं है, बल्कि हाई-रिस्क प्रेग्नेंसी के लिए मल्टी-लेवल स्ट्रैटेजी अपनाना जरूरी है।
कम उम्र में प्रेग्नेंसी अपने आप में बड़ी चुनौती
जब किशोरावस्था में प्रेग्नेंसी होती है, तब शरीर अभी खुद विकास की प्रक्रिया में होता है। ऐसे में मां को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता, जिससे उसका वजन ठीक से नहीं बढ़ता। इसका असर बच्चे पर भी पड़ता है। ऐसे बच्चे अक्सर छोटे या कमजोर जन्म लेते हैं। इस तरह की स्थिति आगे चलकर कुपोषण की समस्या को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाती जाती है।
पोषण अर्थव्यवस्था के लिए भी जरूरी
गर्भवती महिलाओं का पोषण सिर्फ समाज के लिए नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी उतना ही अहम है। दुनिया भर के अध्ययन बताते हैं कि अगर हम पोषण में निवेश करें, तो हर 1 रुपये पर लगभग 18 रुपये का फायदा मिल सकता है। इससे बेहतर सेहत, ज्यादा प्रोडक्टिविटी और मजबूत विकास होता है, जिससे देश को भी फायदा मिलता है।
Global Burden of Disease रिपोर्ट (1990–2017) के अनुसार, भारत में आज भी बहुत सारी बीमारियों की सबसे बड़ी वजह कुपोषण है।
FAO और UNICEF के सर्वे बताते हैं कि भारत के लगभग 70% परिवारों के लिए स्वस्थ और संतुलित आहार खरीदना मुश्किल है।
अगर सरकार और समाज मिलकर सस्ती सब्सिडी, फूड वाउचर और बेहतर फूड मार्केट नहीं बनाएंगे, तो गर्भवती महिलाओं का पोषण और उनका वजन बढ़ना (GWG) दोनों प्रभावित होते रहेंगे।
एक मजबूत विजन: M-O-T-H-E-R-S मॉडल
एक पोषित भारत के लिए यह मॉडल हमें सात सरल लेकिन असरदार कदमों की दिशा दिखाता है:
M - Mainstream preconception care: गर्भधारण से पहले ही महिलाओं की सेहत और पोषण पर ध्यान देना।
O - Observe and monitor maternal weight: गर्भावस्था के दौरान वजन और पोषण की नियमित निगरानी करना।
T - Tailor WHO GWG standards for Indian context: भारतीय परिस्थितियों के अनुसार WHO के वजन बढ़ने के मानकों को अपनाना।
H - Healthy food environment: सभी के लिए सुलभ, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन का माहौल बनाना।
E - Eliminate malnutrition and metabolic risk: कुपोषण और उससे जुड़ी बीमारियों को खत्म करना।
R - Reach adolescents: किशोरों तक पोषण और स्वास्थ्य की सही जानकारी पहुंचाना।
S - Strengthen integrated support packages: माताओं और बच्चों के लिए एकीकृत सहायता प्रणालियों को मजबूत बनाना।
कुल मिलाकर यह सिर्फ एक नीति या आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी है। अगर हम माताओं के पोषण पर ध्यान दें, तो इसका असर तुरंत दिखता है। बच्चे जन्म से ही स्वस्थ होते हैं और वे स्कूल और जीवन में बेहतर प्रदर्शन करते हैं व आगे चलकर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में मदद करते हैं।
अगर हम प्रेग्नेंसी के दौरान वजन बढ़ने (GWG) और प्रेग्नेंसी से पहले की देखभाल (प्रीकॉन्सेप्शन केयर) को मातृ स्वास्थ्य का केंद्र बना दें, तो भारत न सिर्फ स्वस्थ महिलाओं और बच्चों वाला देश बनेगा, बल्कि एक सक्षम और खुशहाल भविष्य की ओर भी बढ़ेगा। यह सिर्फ वजन मापने का मामला नहीं है, बल्कि यह उस कुपोषण की जंजीर को तोड़ने का मौका है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आई है और यही कदम हमें एक सशक्त संदेश देता है: पोषित महिलाएं, पोषित समाज।
- यह लेख मूल रूप से IPE Global और ICMR से जुड़ी श्वेता खंडेलवाल और रीमा मुखर्जी द्वारा अंग्रेजी में लिखा गया था, जिसका हिंदी अनुवाद अनुराग गुप्ता ने किया है।
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Dec 08, 2025 20:53 IST
Modified By : Anurag GuptaDec 08, 2025 20:53 IST
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Published By : Anurag Gupta