सिस्टिक फाइब्रोसिस में कब पड़ती है लंग्स ट्रांसप्लांट की जरूरत, जानें जरूरी बातें

सिस्टिक फाइब्रोसिस एक गंभीर बीमारी है, जो आमतौर पर फेफड़ों, पाचनतंत्र और अन्य अंगों को प्रभावित करती है। आमतौर पर इस बीमारी से शरीर के वो सेल्स प्रभावित होते हैं जो म्यूकस, पसीना और पाचक रस पैदा करते हैं। सिस्टिक फाइब्रोसिस होने पर जीन्स में खराबी आ जाती है, जिसके कारण पसीना, पाचक रस और म्यूकस के रूप में निकलने वाला तरल पदार्थ गाढ़ा हो जाता है। इस बीमारी का सबसे ज्यादा खतरा छोटे बच्चों और 30 साल से बड़ी उम्र के लोगों को होता है।
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सिस्टिक फाइब्रोसिस में कब पड़ती है लंग्स ट्रांसप्लांट की जरूरत, जानें जरूरी बातें


सिस्टिक फाइब्रोसिस एक गंभीर बीमारी है, जो आमतौर पर फेफड़ों, पाचनतंत्र और अन्य अंगों को प्रभावित करती है। आमतौर पर इस बीमारी से शरीर के वो सेल्स प्रभावित होते हैं जो म्यूकस, पसीना और पाचक रस पैदा करते हैं। सिस्टिक फाइब्रोसिस होने पर जीन्स में खराबी आ जाती है, जिसके कारण पसीना, पाचक रस और म्यूकस के रूप में निकलने वाला तरल पदार्थ गाढ़ा हो जाता है। इस बीमारी का सबसे ज्यादा खतरा छोटे बच्चों और 30 साल से बड़ी उम्र के लोगों को होता है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस क्यों है खतरनाक

सिस्टिक फाइब्रोसिस होने पर शरीर में पानी का संतुलन बिगड़ जाता है। इस कारण कई समस्‍यायें हो सकती हैं। इसका सबसे ज्‍यादा असर फेफड़ों पर पड़ता है और इस स्थिति में फेफड़ों में ये गाढ़े स्राव कीटाणुओं को समाहित कर लेते हैं, जिससे बार-बार फेफड़ों में संक्रमण होता हैं। पैंक्रियाज में सामान्‍य प्रवाह अवरुद्ध होने के कारण शरीर में फैट और फैट में मौजूद घुलनशील विटामिनों को पचाना और अवशोषित करना अधिक जटिल हो जाता है। इससे मुख्य रूप से शिशुओं में पोषण सम्बन्धी समस्याएं हो सकती हैं। अगर परिवार में किसी को भी सिस्टिक फाइब्रोसिस की शिकायत को तो गर्भावस्था के दौरान इसकी नियमित जांच करानी चाहिए। इसे खून और थूक से जांचा जा सकता है।

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सिस्टिक फाइब्रोसिस की जांच

सिस्टिक फाइब्रोसिस की जांच ब्लड टेस्ट, इम्यूनोरिएक्टिव ट्राईप्सिनोजेन, स्वैट क्लोराइड टेस्ट, जेनेटिक टेस्ट, स्पूटम टेस्ट, ऑर्गन टेस्ट, सीटी स्कैन, चेस्ट एक्सरे और लंग फक्शंन आदि के टेस्ट से की जा सकती है।

फेफड़ों का प्रत्यारोपण है इलाज

शुरुआत में सिस्टिक फाइब्रोसिस का पता चलने पर चिकित्सक इस रोग में कुछ एंटीबायोटिक दवाएं देते हैं। हालांकि इस रोग का सटीक इलाज संभव नहीं है, इसलिए बहुत सारे मामलों में लंग्स ट्रांस्प्लांट (फेफड़ों का प्रत्यारोपण) की जरूरत पड़ती है। हालांकि इस प्रत्यारोपण के बाद भी मरीज के पूरी तरह स्वस्थ होने की गारंटी नहीं होती है। फेफड़े ट्रांसप्‍लांट के बाद भी मरीज के अंदर संक्रमण होने की संभावना होती है। शरीर में पहले से मौजूद जीवाणु इस संक्रमण के लिए जिम्‍मेदार होते हैं जो प्रत्‍या‍रोपित हुए फेफड़ों को संक्रमित करते हैं। इस संक्रमण को रोकने के लिए चिकित्‍सक मरीज को इम्‍यूनसप्रेसिव दवायें (हालांकि ये दवायें फेफड़ों को नुकसान पहुंचा सकती हैं) लेने की सलाह देते हैं। इसके अलावा म्यूकस थिंनिंग ड्रग्स, ब्रोनक्डिलेट्रस, बाउल सर्जरी, फीडिंग ट्यूब, लंग ट्रांसप्लांट आदि से इसका इलाज कर सकते है।

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जरूरी है फेफड़ों की जांच

लंग ट्रांसप्‍लांटेशन के दौरान मरीज को जिस व्‍यक्ति के फेफड़े लगाये जाते हैं, उसकी पूरी तरह से जांच होती हैं। इस जांच में यह पता लगाया जाता है कि उस व्‍यक्ति के जीन में ऐसी समस्‍या तो नही थी, यदि फेफड़ा देने वाले के जीन में यह समस्‍या हो तो फेफड़ों के प्रत्‍यारोपण के बाद मरीज की हालत पहले जैसी हो सकती है।

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