एक गर्भवती महिला जब डिलीवरी (प्रसव) के नजदीक पहुंचती है, तो उसे मदद की जरूरत पड़ती है। अस्पतालों में इस मदद के लिए प्रशिक्षित नर्स होती हैं, जो प्रसव के दौरान महिला और प्रसव के बाद शिशु की देखभाल करती हैं। लेकिन भारत में ऐसे भी बहुत से इलाके हैं, जहां सस्ते और सुविधायुक्त अस्पतालों की कमी है और लोगों के पास मंहगे अस्पतालों में डिलीवरी कराने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं। ऐसे में गांवों और कस्बों में बीमार लोगों, गर्भवती महिलाओं और शिशुओं की देखभाल और सहायता के लिए सरकार की तरफ से आशा कार्यकर्ताओं को नियुक्त किया गया है। 'ASHA' का पूरा नाम Accredited Social Health Activist है। इसका अर्थ है 'मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता'। ये आशा कार्यकर्ता सरकार की तरफ से प्रशिक्षित किए जाते हैं।
आज International Midwives Day है। Midwife को आप हिंदी में 'दाई' कह सकते हैं। पुराने समय में जब अस्पतालों और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी थी, तब गर्भवती महिला की डिलीवरी कराने का काम दाई ही किया करती थीं। आज भी भारत के तमाम गांव और कस्बे, जहां अस्पताल नहीं हैं, वहां प्रसव के दौरान गांव की ही कोई महिला बच्चे की डिलीवरी कराती है, जिसे दाई कहा जाता है। आज हम आपको बता रहे हैं भारत की सबसे कम उम्र की आशा कार्यकर्ता की कहानी, जो कठिन चुनौतियों से जूझकर भी प्रसव के लिए महिलाओं की मदद करने के लिए आगे आई हैं।
सबसे कम उम्र की आशा कार्यकर्ता हैं हतरी बाई
हतरी बाई की उम्र महज 18 साल है और वे भारत की सबसे कम उम्र की आशा कार्यकर्ता हैं। मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव घुड़दल्या, जहां सड़क और परिवहन की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां हतरी बाई अपने निजी प्रयासों से गर्भवती महिलाओं और शिशुओं की मदद करती हैं। घुड़दल्या गांव विकासखंड बाग से 16 किलोमीटर दूर है। इसके आसपास 5-6 छोटे-छोटे गांव हैं, जहां की 96% जनसंख्या आदिवासी है। नदी के किनारे बसे इस पहाड़ी इलाके में न तो कोई पक्की सड़क और न ही आने-जाने के लिए परिवहन की सुविधा।
यहां नजदीकी सरकारी अस्पताल तक पहुंचने के लिए लोगों को उंचे-नीचे पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलकर या मोटर साइकिल से पहले नदी किनारे आना होता है। इसके बाद नाव के द्वारा नदी पार करके 8-10 किलोमीटर का सफर तय करके ही सरकारी अस्पताल पहुंचा जा सकता है।
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गर्भवती महिलाओं को होती है परेशानी
गर्भवती महिला को सुरक्षित प्रसव के लिए सरकारी अस्पताल तक पहुंचाना इस इलाके में एक बड़ी चुनौती है। इसी चुनौती को स्वीकारते हुए लोगों की मदद करने को हतरी बाई आगे आईं। अस्पताल की एंबुलेंस ज्यादा से ज्यादा नदी के दूसरे छोर तक आ सकती है। ऐसे में उंचे-नीचे रास्ते को पार करके पहले गर्भवती को नदी के किनारे तक पहुंचाना और फिर नाव चलाकर उसे सुरक्षित नदी के पार पहुंचाना हतरी बाई के लिए आसान नहीं होता है। ज्यादातर समय हतरी को नाव खुद ही चलानी पड़ती है।
गर्भवती की मदद के लिए ली है ट्रेनिंग
गांव से अस्पताल तक पहुंचने में हतरी को 2-3 घंटे का समय लगता है। इस दौरान इस बात की भी आशंका होती है कि डिलीवरी रास्ते में ही हो जाए या कोई आपातकालीन स्थिति पैदा हो जाए। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए हतरी हमेशा तैयार रहती हैं। इसके लिए उन्हें नजदीकी ब्लॉक में 15 दिन की ट्रेनिंग दी गई है। ट्रेनिंग के बाद ही हतरी ने आशा का फॉर्म भरा था। हतरी बताती हैं कि उन्हें गर्भवती महिलाओं, बीमार लोगों और शिशुओं की मदद करना अच्छा लगता है।
कम उम्र में हो गई थी हतरी की शादी
बातचीत के दौरान हतरी बताती हैं कि उनकी शादी 15 साल की उम्र में ही हो गई थी। पढ़ी-लिखी होने के कारण हतरी अब ये बात अच्छी तरह समझती हैं कि कम उम्र में लड़कियों की शादी करने से उन्हें कई तरह की शारीरिक और मानसिक परेशानियों से गुजरना पड़ता है। यही कारण है कि हतरी अब गांव के लोगों को इस बात के लिए भी जागरूक करती हैं कि वो कम उम्र में अपनी लड़कियों की शादी न करें।
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शिशुओं को बीमारियों से बचाने के लिए टीके पहुंचाती हैं
हतरी सिर्फ गर्भवती महिलाओं की ही मदद नहीं करती हैं, बल्कि शिशुओं को जानलेवा बीमारियों से बचाने के लिए सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम में भी अपना सहयोग देती हैं। नदी के पार से वैक्सीन के बक्सों को कंधों पर ढोकर लाना और फिर स्वास्थ्य कर्मचारियों के साथ गांव-गांव घूमकर बच्चों को टीके लगाने में मदद करना भी हतरी को अच्छा लगता है। टीकाकरण कार्यक्रम से एक ही पहले ही हतरी गांवों में घूमकर हर घर में ये सूचना पहुंचा देती हैं कि अगले दिन टीकाकरण के लिए स्वास्थ्यकर्मी आने वाले हैं और महिलाएं अपने बच्चों को लेकर निश्चित जगह पर इकट्ठा हो जाएं।
आसान नहीं है लोगों को समझाना
हतरी बताती हैं कि उनके इलाके की आबादी लगभग 900 लोगों की है, जिनमें से 400 से ज्यादा 5 साल से कम उम्र के बच्चे हैं। लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं और न ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं। ऐसे में उन्हें यह समझाना कि वो अपने बच्चों को सभी टीके लगवाएं, आसान नहीं होता है। हतरी घर-घर जाकर लोगों को बताती हैं कि उनके बच्चों के लिए सभी टीके लगवाने क्यों जरूरी हैं और टीके लगवाने से बच्चों को किन बीमारियों से बचाया जा सकता है।
लोगों का भी मिलता है सहयोग
हतरी कहती हैं कि गर्भवती महिला को ऐसी स्थिति में संभालना, जब डिलीवरी होने वाली हो, आसान नहीं है। ऐसे में गर्भवती को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए वो उसके घर के सदस्यों या पड़ोसियों से मदद मांगती हैं। शाम के बाद नदी के आसपास का इलाका सुनसान हो जाता है। ऐसे में अगर किसी महिला को शाम के समय या रात में अस्पताल पहुंचाना हो, तो हतरी को डर भी लगता है। लेकिन हतरी हिम्मत से काम लेती हैं और आसपास के लोगों से मदद मांगकर ही सही, मगर अस्पताल तक जरूर पहुंचती हैं। अपने गांव और समाज के लिए किए जाने वाले इस प्रयास में हतरी के पति और उनका परिवार भी उनका काफी सहयोग करता है।
International Day of the Midwife और हतरी बाई
हतरी बाई जैसी न जाने कितनी महिलाएं और आशा कार्यकर्ता छोटे-छोटे गांवों और शहरी विकास की छाया से भी दूर के इलाकों में काम कर रही हैं। इन्हीं महिलाओं के सम्मान के लिए दुनियाभर में 5 मई को International Day of the Midwife मनाया जाता है। यूनिसेफ के अनुसार भारत में हर दिन लगभग 1600 महिलाओं की मौत डिलीवरी के दौरान हो जाती है। इनमें से ज्यादातर मौतें सुदूर गांवों में रहने वाली उन गरीब महिलाओं की होती है, जिन तक सही समय पर सुविधाएं नहीं पहुंच पाती हैं। ये शायद हतरी बाई जैसी कर्मठ और सजग महिलाओं का ही प्रयास है कि 2007 के मुकाबले 2013 तक इस तरह की मौतों में 40% तक की कमी आई थी।
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