World Health Day यानी विश्व स्वास्थ्य दिवस हर साल 7 अप्रैल को मनाया जाता है। इस साल विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) यानी WHO ने स्वास्थ्य दिवस की थीम नर्स और दाइयों की सुरक्षा और सेवा भावना को समर्पित किया है। पढ़ें मध्यप्रदेश के एक ऐसे गांव की कहानी, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने में स्वास्थ्य कर्मियों को न जाने कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
इस समय ये लेख पढ़ते हुए जब आप सांस ले रहे हैं, कुछ खा रहे हैं या पानी पी रहे हैं, तो अंजाने में आपके शरीर में ढेर सारे वायरस और बैक्टीरिया प्रवेश करते जा रहे हैं। ये वायरस और बैक्टीरिया शरीर में पहुंचकर आपको बीमार बना सकते हैं। मगर ज्यादातर समय आप बीमार नहीं पड़ते हैं, क्योंकि आपके शरीर में एक विशेष 'सिस्टम' है, जो इन वायरस और बैक्टीरिया से आपकी रक्षा करता है। इसे 'इम्यून सिस्टम' या प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं। अगर ये इम्यून सिस्टम ठीक से काम न करे, तो आपके आसपास हर समय मौजूद रहने वाले ये वायरस, बैक्टीरिया और रोगाणु आपके शरीर पर हावी हो जाएंगे और आपको बीमार कर देंगे। शरीर की इसी ताकत को हम 'इम्यूनिटी' यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।
कब होता है इम्यून सिस्टम का विकास?
जब कोई बच्चा गर्भ में होता है, तो मां का इम्यून सिस्टम उसकी रक्षा करता है। नन्हे शिशु का अपना इम्यून सिस्टम जन्म के 6-9 महीने बाद धीरे-धीरे विकसित होना शुरू होता है। मगर शिशु के इम्यून सिस्टम को पूरी तरह शक्तिशाली होने में कम से कम 12 से 24 महीने (लगभग 2 साल) लग जाते हैं। यही कारण है कि शिशु को गंभीर बीमारियों से बचाने के लिए जन्म के बाद के 2-3 सालों में कई तरह के टीके लगाए जाते हैं। ये टीके शिशु को कई गंभीर बीमारियों, जैसे- टीबी, काली खांसी, टिटनिस, हेपेटाइटिस, खसरा, पोलियो आदि से बचाते हैं। टीका और कुछ जरूरी दवाओं की खुराक देकर शिशु के इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने की प्रक्रिया को 'इम्यूनाइजेशन' यानी 'प्रतिरक्षीकरण' कहते हैं।
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भारत में इम्यूनाइजेशन
आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में अभी सिर्फ 65 प्रतिशत बच्चों को ही इम्यूनाइज्ड (प्रतिरक्षित) किया जा सका है। जबकि भारत ने 2020 तक 90 प्रतिशत बच्चों को प्रतिरक्षित करने का लक्ष्य तय किया है। ये आंकड़े इसलिए भी हैरान करने वाले हैं क्योंकि सभी सरकारी अस्पतालों में ये टीके निःशुल्क लगाए जाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी कौन सी चुनौतियां हैं, जिनके कारण अभी भी भारत के 35% बच्चे टीकाकरण से दूर हैं?
दूर-दराज के इलाकों में नहीं पहुंचती सुविधाएं
दरअसल हमारे देश में ऐसे बहुत से इलाके हैं, जहां कम जागरूकता, अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के कारण लोग बच्चों को सही समय पर टीका नहीं लगवाते हैं। कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जो देश की मुख्य धारा से इतने कटे हुए हैं, कि वहां अभी न तो सरकारी या प्राइवेट अस्पताल हैं और न ही कच्ची/पक्की सड़क है। ऐसी स्थिति में हेल्थ वर्कर्स को इन इलाकों तक टीकाकरण या दवाएं बांटने के लिए जाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए 'अनोखा' प्रयास
ऐसा ही एक इलाका है मध्य प्रदेश का जिला 'अलीराजपुर'। नर्मदा नदी से सटा अलीराजपुर, छोटी-बड़ी पहाड़ियों के बीच बसा एक खूबसूरत जिला है, जिसके अंतर्गत 16 छोटे-छोटे गांव आते हैं। इस इलाके की 85 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। (अलीराजपुर भारत में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी वाला इलाका है।) सड़क और परिवहन (ट्रांसपोर्ट) व्यवस्था न होने के कारण, दूसरी सरकारी सुविधाएं तो दूर, टीके और दवाएं भी इस इलाके में आसानी से नहीं पहुंच पाते हैं। स्वास्थ्य कर्मियों (हेल्थ वर्कर्स) को इन इलाकों में पहुंचने के लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कुछ उत्साही स्वास्थ्य कर्मियों की मदद से इस इलाके के लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए कुछ अनोखे तरीके निकाले गए हैं।
बोट एम्बुलेंस से पहुंचाए जाते हैं टीके, स्वास्थ्यकर्मी और दवाएं
अलीराजपुर तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं है इसलिए यहां परिवहन की भी कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक पहुंचने का एकमात्र विकल्प जलमार्ग है और वो भी आसान नहीं है। नदी में लगभग एक से डेढ़ घंटे तक नाव चलाकर ही इस इलाके तक पहुंचा जा सकता है। ऐसे में अधिकारियों ने इस इलाके तक स्वास्थ्य कर्मियों और वैक्सीन को पहुंचाने के लिए एक खास मोटर बोट की व्यवस्था की है, जिसे 'जननी एक्सप्रेस' नाम दिया गया है। इसे बोट एंबुलेंस भी कहते हैं। अलीराजपुर के जिला टीकाकरण अधिकारी डॉ. नरेंद्र भयडिया बताते हैं, "इस इलाके का सबसे नजदीकी 'कॉमन सर्विस सेंटर' सोंडवा ब्लॉक में है। सोंडवा से वैक्सीन लेकर जब हम चलते हैं, तो हमें 25-30 किलोमीटर सड़क मार्ग पर जाना पड़ता है। इसके बाद नाव (जननी एक्सप्रेस) से लगभग 1 से डेढ़ घंटे का सफर है। नाव से उतरने के बाद पहाड़ी चढ़कर हम इन गांवों तक पहुंचते हैं। कम्यूनिकेशन की कोई व्यवस्था न होने के कारण स्वास्थ्य कर्मियों का आपस में संपर्क भी नहीं हो पाता है। हम स्वास्थ्य कर्मियों को इन गांवों में छोड़ते हुए आगे बढ़ जाते हैं और शाम को लौटते हुए सभी को इकट्ठा करते हुए वापस लौट आते हैं। कई बार तो हमारे स्वास्थ्य कर्मियों को गांवों में 2-3 दिन तक रुकना भी पड़ता है।"
टीके पहुंचाए जाने के बाद भी आती हैं तमाम मुश्किलें
इतने मुश्किल सफर के बाद इन गांवों तक टीका और दवाएं पहुंचाए जाने के बाद भी तमाम तरह की परेशानियां आती हैं। मध्य प्रदेश के राज्य टीकाकरण अधिकारी डॉ. संतोष शुक्ला बताते हैं, "अलीराजपुर इलाके की 85 प्रतिशत से ज्यादा आबादी आदिवासी है। स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी होने के कारण यहां ज्यादातर लोग अभी भी जड़ी-बूटियों पर विश्वास करते हैं। इसके अलावा एक चैलेंज ये है कि यहां अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी है, जिसके कारण लोग काम की तलाश में आस-पास के राज्यों, गुजरात और महाराष्ट्र चले जाते हैं। साल के 8 महीने वो यहां रहते ही नहीं हैं, तो उनके बच्चों का टीकाकरण चक्र भी प्रभावित होता है। ज्यादातर लोग होली और दिवाली पर ही घर लौटते हैं। ऐसे में अब हमने इन लोगों का ऑनलाइन और ऑफलाइन रिकॉर्ड रखना शुरू कर दिया है, ताकि हमें पता रहे कि किस बच्चे को कौन सा टीका लग गया है और कौन सा लगाना बाकी रह गया है। जब ये लोग त्योहारों पर घर लौटते हैं, तो हमारी कोशिश रहती है कि बचे हुए टीके उन्हें लगा दिए जाएं।"
हाथ से मैप बनाकर पहुंचाई जाती हैं सुविधाएं
रिमोट एरिया होने के कारण इस इलाके में न तो मोबाइल नेटवर्क काम करते हैं और न ही जीपीएस सिस्टम। ऐसे में अधिकारियों को स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर हाथ से ही मैप बनाना पड़ता है, ताकि सभी इलाकों को मार्क किया जा सके और वहां तक टीके और जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाई जा सकें।
दीवारों पर मैसेज लिखकर लोगों को जागरूक करने की कोशिश
लोगों को टीकों की जानकारी देने के लिए ये स्वास्थ्य कर्मी घर की दीवारों, शौचालयों और सार्वजनिक जगहों पर जाकर लोकल भाषा में संदेश लिख देते हैं, जिससे लोगों में टीकाकरण के प्रति जागरूकता बढ़े। डॉ. संतोष शुक्ला बताते हैं, "भाषा भी हमारे लिए एक बड़ा चैलेंज है। हम इन इलाकों में जागरूकता के लिए जो भी बैनर, पोस्टर या ऑडियो-विजुअल सामग्री ले जाते हैं, उनकी भाषा ज्यादातर लोगों को समझ नहीं आती है। इसके लिए हमने एक तरीका यह निकाला, कि इस इलाके के लोक गीतों की धुन और भाषा में हमने अपने मिशन से जुड़ी सामग्री बनाई और ब्रिज कोर्स (लोकल भाषा में कम्यूनिकेशन स्किल की विशेष ट्रेनिंग) कराया, ताकि लोगों को जागरूक किया जा सके।"
टीकाकरण के लिए लोगों को इकट्ठा करना मुश्किल
इन इलाकों में पहुंचने के बाद लोगों को इकट्ठा करना भी एक चुनौती भरा काम है। डॉ. नरेंद्र बताते हैं, "पहाड़ियां चढ़ने के बाद जब हम इन गांवों में पहुंचते हैं, तो हमारी सहयोगी आशा कार्यकर्ता लोगों को बुलाने चली जाती हैं, जिसके बाद लोग एक जगह इकट्ठा किए जाते हैं। इसके अलावा एनजीओ द्वारा संचालित कुछ छोटे-छोटे स्कूलों में हमें बच्चे मिल जाते हैं। इन्हें बुलाकर इनका टीकाकरण किया जाता है। टीकाकरण का दिन और समय पहले से तय करके लोगों को सूचित कर दिया जाता है, जिसके कारण कई बार दूर-दराज के इलाकों से घंटों का पैदल सफर तय करके भी कुछ महिलाएं कैम्प में टीकाकरण के लिए आती हैं।"
20 सालों से सेवाएं देने वाली एएनएम
इस इलाके में पिछले 20 सालों से अपनी सेवाएं देने वाली एएनएम प्रिंस कला परमार को यहां के लोग अब अच्छे से पहचानने लगे हैं। प्रिंस कला फिलहाल 5 गांवों को कवर करती हैं, जहां वो 5000 से ज्यादा लोगों तक टीके और जीवन रक्षक दवाएं पहुंचा रही हैं। एक गांव से दूसरे गांव की दूसरी कई किलोमीटर होने के बावजूद प्रिंस कला पैदल ही इन गांवों का सफर तय करती हैं।
मिशन इंद्रधनुष को किया गया साकार
भारत सरकार ने दिसंबर 2014 में मिशन इंद्रधनुष की शुरुआत की थी, जिसमें सन् 2020 तक ऐसे सभी बच्चों का टीकाकरण करने का लक्ष्य तय किया गया है, जिन्हें अब तक टीके नहीं लगे हैं या आंशिक रूप से लगे हैं। डॉ. संतोष शुल्का बताते हैं, "इतने समर्पित और उत्साही स्वास्थ्य कर्मियों के कारण आज इस इलाके में एक भी बच्चा अनइम्यूनाइज्ड नहीं है।"
सुरक्षित घर पहुंचने पर 'नर्मदा मां' को अर्घ्य देना नहीं भूलते स्वास्थ्य कर्मी
स्वास्थ्य कर्मियों के लिए इन इलाकों में काम करना आसान नहीं होता है। इतने लंबे सफर के बाद कई बार उन्हें पहाड़ के गांवों में ही 2-3 दिन रुकना पड़ता है। ऐसे में जब ये स्वास्थ्य कर्मी नाव से सुरक्षित वापस सोंडवा पहुंच जाते हैं, तो अपनी मां नर्मदा को अर्घ्य देना और पूजा करना नहीं भूलते हैं। नर्मदा भारत की पवित्र नदियों में से एक है। इन स्वास्थ्य कर्मियों के अथक प्रयास और कभी कम न होने वाले उत्साह के कारण ही इंद्रधनुष जैसे मिशन को साकार किया जा सकता था।
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