आजकल का समय पहले के समय से काफी बदल गया है। लेकिन पेरेंट्स का बात बात पर बच्चों को ये टोकना 'तुम बहुत शैतानी करते हो', 'हम तो अपने समय में इतनी मस्ती नहीं करते थे जितनी तुम करते हो', 'ज्यादा फोन यूज करना नहीं है, हम तो अपने टाइम को फोन छूते तक नहीं थे' आदि। पेरेंट्स द्धारा बच्चों को कही गई ये बातें उनके मन में आपके लिए नफरत और डर पैदा करती हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपके साथ हमेशा फ्रैंक रहें तो आपको उन्हें टोकने के बजाय उन्हें समझने की जरूरत है।
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बच्चों का कंफर्ट ज़ोन
13 से 18 साल की उम्र के बाद भावनात्मक और सामाजिक विकास के साथ बच्चे खुद को बॉय या गर्ल के तौर पर स्वीकारने लगते हैं। इस दौर में वे अपने जैसे लोगों के साथ ज्य़ादा सहज होते हैं इसलिए आपने भी नोटिस किया होगा कि इस उम्र में खेल के दौरान लड़कियों और लड़कों के अलग-अलग ग्रुप्स बन जाते हैं और वे अपने ग्रुप के बच्चों के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि उनके कपड़े, एक्सेसरीज़ और हॉबीज़ में काफी समानता होती है। इससे वे अपनी रुचि से जुड़े टॉपिक्स पर सहजता से बातचीत कर पाते हैं। इस तरह लड़के-लड़कियों के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर नोक-झोंक भी चलती रहती है।
लड़के खुद को बहादुर समझते हैं और लड़कियों को डरपोक कह कर चिढ़ाते हैं, वहीं लड़कियां अपने आप को सलीकेदार और लड़कों को लापरवाह समझने लगती हैं। यही वह समय है, जब हमें अपने बच्चे को अपोजि़ट सेक्स का सम्मान करना सिखाना चाहिए। लड़कों को यह बताना ज़रूरी है कि लड़कियां तुमसे अलग ज़रूर दिखती हैं पर वे भी तुम्हारी दोस्त बन सकती हैं। इसी तरह लड़कियों को भी यह समझाना चाहिए कि बॉयज़ थोड़े नॉटी ज़रूर होते हैं पर तुम्हें भी उनके साथ खेलना चाहिए।
टूट रही हैं सीमाएं
समय के साथ समाज की सोच में भी तेज़ी से बदलाव आ रहा है। पुराने समय में किचन को पुरुषों के लिए नो एंट्री ज़ोन माना जाता था पर अब ऐसा नहीं है। आज की मम्मी अगर कार ड्राइव करके ऑफिस जाती हैं तो पापा भी किचन में बच्चों के लिए नाश्ता बना सकते हैं। ऐसे सहज माहौल में पलने वाले बच्चों के मन में कार्यों को लेकर कोई जेंडर रोल निर्धारित नहीं होता।
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इसी वजह से आज की लड़कियां भी स्केटिंग, क्रिकेट और फुटबॉल जैसे आउटडोर गेम्स में न केवल बड़े उत्साह से शामिल होती हैं बल्कि रेसलिंग, बॉक्सिंग और जूडो-कराटे जैसे मैस्कुलिन समझे जाने वाले स्पोट्र्स के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। वहीं लड़के भी कुकिंग की फील्ड में कामयाबी की नई इबारत लिख रहे हैं। इसीलिए बच्चों के खेल से जुड़ी स्टीरियोटाइप सीमाएं भी अब टूटने लगी हैं और हमें इस बदलाव को सहजता से स्वीकारना चाहिए।
बनें रोल मॉडल
अपने माता-पिता को देखकर ही बच्चों के मन में आदर्श पुरुष या स्त्री की छवि तैयार होती है। इसलिए अगर पेरेंट्स के आपसी रिश्ते में मधुरता होगी और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति केयरिंग होंगे तो इससे बच्चे के मन में अपने आप यह धारणा विकसित होगी कि गल्र्स /बॉयज़ दोनों ही अच्छे होते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन परिवारों में भाई-बहन दोनों होते हैं, वहां के बच्चों के लिए दूसरे जेंडर की भावना को समझना और उनके साथ सामंजस्य बिठाना आसान हो जाता है। लेकिन जहां केवल लड़के या लड़कियां हों, वहां माता-पिता की जि़म्मेदारी बढ़ जाती है। ऐसे में उन्हें अपने टीनएजर बेटों/बेटियों को समझाना चाहिए कि अपोजि़ट जेंडर के साथ अपने व्यवहार में वे शालीनता बरतें।
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