आजकल दूषित भरे माहौल और खराब खानपान के चलते बच्चे एडीएचडी यानी अटेंशन डेफिसिट हाइपरऐक्टिविटी डिसॉर्डर से ग्रस्त हो रहे हैं। अक्सर यह समस्या बच्चों में जन्मजात रूप से पाई जाती है पर इसकी पहचान पांच साल की उम्र के बाद ही हो पाती है। कई पेरेंट्स इसके लिए बच्चों को ही जिम्मेदार मानते हैं। जबकि इसमें बच्चों की कोई गलती नहीं होती है। हालांकि साइंटिफिक क्षेत्र में भी अभी इस समस्या के सभी कारण पूर्णत: स्पष्ट नहीं हैं। फिर भी वैज्ञानिकों के अनुसार आनुवंशिक रूप से जीन की संरचना में गड़बड़ी इसकी सबसे प्रमुख वजह है।
जैसा कि इसके नाम से ही ज़ाहिर है कि अटेंशन डेफिसिट हाइपरऐक्टिविटी डिसॉर्डर से ग्रस्त बच्चे किसी भी कार्य में अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते, इससे ये पढ़ाई में भी पिछडऩे लगते हैं। साथ ही हाइपर ऐक्टिव होने की वजह से ये बेवजह हिलते-डुलते और शोर मचाते रहते हैं। कई बार इनका व्यवहार बेहद आक्रामक हो जाता है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इनके शरीर में कोई मशीन फिट कर दी गई हो। लक्षणों की तीव्रता के आधार पर इस समस्या को तीन भागों में बांटा जाता है। माइल्ड, मॉडरेट और सिवियर। माइल्ड एडीएचडी होने पर लगभग तीन से छह महीने तक काउंसलर बच्चों से कुछ ऐसी मेंटल एक्सरसाइज़ करवाते हैं, जिनसे उन्हें ध्यान केंद्रित करने और अपने अति चंचल व्यवहार को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
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क्या है इसके बचाव?
आधुनिक तकनीक के विकास के साथ आजकल कुछ ऐसी दवाएं उपलब्ध हैं, जो सीधे ब्रेन के प्रभावित हिस्से पर असर डालती हैं। इसलिए अब दवाओं के साइड इफेक्ट की आशंका कम हो गई है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि यह समस्या आनुवंशिक कारणों से होती है। इसलिए इससे बचाव मुश्किल है। फिर भी अगर किसी बच्चे को ऐसी समस्या हो तो उसे जंक फूड से दूर रखें क्योंकि उसमें मौज़ूद आर्टिफिशियल कलर और प्रिज़र्वेटिव की वजह से कुछ ऐसे हॉर्मोन्स का सिक्रीशन होता है, जो बच्चे के ब्रेन को अशांत कर देता है। इसके अलावा चॉकलेट और ज्य़ादा मीठी चीज़ें भी ब्रेन पर ऐसा ही प्रभाव डालती हैं।
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टीचर्स और पेरेंट्स का सपोर्ट है जरूरी
ऐसे बच्चों को क्लास रूम में हमेशा फस्र्ट बेंच पर बिठाना चाहिए। टीचर क्लास के किसी शांत और समझदार बच्चे को इस बात की जि़म्मेदारी सौंपें कि वह एडीएचडी की समस्या से ग्रस्त बच्चे को पढ़ाई में सहयोग दे। जागरूकता के अभाव में कुछ पेरेंट्स अपने बच्चे को चाइल्ड काउंसलर के पास नहीं ले जाते, जिससे बड़े होने के बाद इनका व्यवहार हिंसक हो जाता है। अगर किसी भी बच्चे में ऐसे लक्षण दिखाई दें तो उसे काउंसलिंग के लिए ज़रूर ले जाएं। अगर ऐसे बच्चों को पेरेंट्स और टीचर्स का पूरा सहयोग मिले तो उनकी यह समस्या जल्द ही दूर हो जाती है। ऐसी समस्या से ग्रस्त बच्चों का अपने विचारों और शारीरिक गतिविधियों पर कोई नियंत्रण नहीं होता। इसलिए उछल-कूद मचाने पर इन्हें बार-बार न डांटें।
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