
गर्भ संस्कार सनातन धर्म के 16 संस्कारों में से एक है। अगर संक्षेप में कहें तो गर्भ संस्कार का मतलब है, बच्चों को गर्भ से ही संस्कार प्रदान करना। अब आप यह सोच रहे होंगे कि गर्भ से बच्चे को कैसे संस्कार दिया जा सकता है। मगर ऐसा संभव है, यह बातें धार्मिक रूप से ही नही बल्कि विज्ञान भी इस बात को मानता है। गर्भ संस्कार की विधि गर्भधारण के पूर्व ही, गर्भ संस्कार की शुरूआत हो जाती है। गर्भवती महिला की दिनचर्या, आहार, प्राणायाम, ध्यान, गर्भस्थ शिशु की देखभाल आदि का वर्णन गर्भ संस्कार में किया गया है। गर्भिणी माता को प्रथम तीन महीने में बच्चे का शरीर सुडौल व निरोगी हो, इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। तीसरे से छठे महीने में बच्चे की उत्कृष्ट मानसिकता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। छठे से नौंवे महीने में उत्कृष्ट बुद्धिमत्ता के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
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ये बात हर कोई जानता है कि गर्भ में पल रहा शिशु मात्र मांस का टुकड़ा नहीं बल्कि वह एक पूर्ण जीता-जागता अलग व्यक्तित्व है जो उसके आसपास की हर घटना और संवेदना को महसूस भी करता है, उससे प्रभावित भी होता है एवं वह अपना प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है। इसका अर्थ यह हुआ की माता-पिता की जिम्मेदारी बन जाती है की गर्भित शिशु को उचित, प्रसन्नतापूर्ण ध्वनियाँ और मंगलमय कर्मों से भरा वातावरण प्रदान किया जाए। कुछ समय बाद शिशु के साथ संपर्क भी स्थापित किया जाता है। आयुर्वेद में गर्भधारण किए हुई स्त्री के लिए निर्धारित जीवनचर्या प्रदान की गयी है। उन्हें ख़ास पुष्टिदायक भोजन के अलावा, योग एवं मंत्र जप तथा निर्धारित विशिष्ट जीवनचर्या का पालन करना चाहिए। माता द्वारा सुनी हुई ध्वनि का प्रभाव शिशु के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है। इसलिए विशिष्ट गर्भ-संस्कार संगीत को सुनना एवं मंत्र उच्चारण गर्भवती महिला को अवश्य करना चाहिए। उन्हें विशेष प्रकार के साहित्य एवं पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिए।
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ऐसा माना जाता है कि यदि माता या पिता दोनों में से कोई एक मानसिक रूप से शांत एवं प्रसन्न नहीं है तो भी गर्भधारण नहीं करना चाहिए। क्योंकि माता-पिता की मानसिक अवस्था का प्रभाव भी आने वाली संतान के स्वास्थ्य और स्वाभाव पर पड़ता है। वास्तव में होने वाले माता-पिता को अपने मन में सत्व गुण की अभिवृद्धि के लिए साधन करने चाहिए। इसके लिए अन्य कारणों के साथ सात्विक आहार एवं उचित दिनचर्या का बड़ा महत्व है। तीखे, मसालेदार भोजन और मादक पदार्थों का सेवन नही करना चाहिए।
कैसे दें संस्कार
वैज्ञानिकों का मानना है कि चौथे महीने में गर्भस्थ शिशु के कर्णेंद्रिय का विकास हो जाता है और अगले महीनों में उसकी बुद्धि व मस्तिष्क का भी विकास होने लगता है। ऐसे में माता-पिता की हर गतिविधि, बौद्धिक विचारधारा का श्रवण कर गर्भस्थ शिशु अपने आपको प्रशिक्षित करता है। चैतन्य शक्ति का छोटा सा आविष्कार यानी, गर्भस्थ शिशु अपनी माता को गर्भस्थ चैतन्य शक्ति की 9 महीने पूजा करना है। एक दिव्य आनंदमय वातावरण का अपने आसपास विचरण करना है। हृदय को प्रेम से लबालब रखना है जिससे गर्भस्थ शिशु के हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़े। उत्कृष्ट देखभाल और अच्छे बीज बोने से उत्कृष्ट किस्म का फल उत्पन्न करना हमारे वश में है। तेजस्वी संतान की कामना करने वाले दंपति को गर्भ संस्कार व धर्मग्रंथों की विधियों का पालन ही उनके मन के संकल्प को पूर्ण कर सकता है।
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