प्रसव के बाद शहरी महिलाओं को होता है अधिक अवसाद

शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं की तुलना में प्रसवोत्तर अवसाद का खतरा अधिक होता है। 
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प्रसव के बाद शहरी महिलाओं को होता है अधिक अवसाद


अवसाद में महिलाशहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं की तुलना में प्रसव के बाद अवसाद के विकसित होने की आशंका अधिक होती हैं, यह बात एक नए शोध से सामने आई है।

 

बड़े शहरों में रहने वाली महिलाओं में बच्चे को जन्म देने के पांच से 14 महीनों के बाद ऐसी हालत विकसित होने की आशंका तीन फीसदी अधिक होती हैं। शोधकर्ता इसके पीछे शहरी माहौल को उत्तरदायी मानते हैं। उनका मानना है कि शहरी जीवन अधिक तनावपूर्ण होता है और यहां लोगों के बीच आपसी मेलजोल कम होता है।

 

टोरंटो में महिला कॉलेज अस्पताल के डॉ. सिमोन विगोद, ने अनुसार, 'शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में अधिक तनाव, कम सामाजिक समर्थन और प्रसवोत्तर अवसाद का खतरा अधिक होता है।

 

डॉक्टर सिमोन का कहना है कि हमें महिलाओं को स्वास्थ्‍य सुविधाएं देते समय उनकी भौगोलिक स्थिति का ध्यान अवश्य  रखना चाहिए। इससे हमें बेहतर परिणाम मिलेंगें और साथ ही प्रसव के बाद होने वाले अवसाद का खतरा भी कम किया जा सकेगा।

 

शोधकर्ताओं ने कनाडा में हुए एक सर्वे की समीक्षा की। इस सर्वे में छह हजार महिलाओं को शामिल किया गया था। उन्होंने पाया कि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली सिर्फ छह प्रतिशत महिलाएं प्रसवोतर अवसाद से पी‍ड़‍ित हैं जबकि इनकी तुलना में शहरी क्षेत्रों में इसकी संख्या नौ प्रतिशत से भी अधिक हैं।

 

शोधकर्ताओं का मानना है कि शहरों में बड़ी संख्या में गैर-कनैडियाई बच्चे पैदा हुए। उस परिवार को कम सामाजिक समर्थन और सहयोग मिलता है। ऐसे में उन्हें अवसाद होने की आशंका अधिक होती है।

 

डॉ. विगोद के अनुसार, 'शहरी क्षेत्रों में महिलाओं में प्रसवोत्तर अवसाद की उच्च दर और सामाजिक समर्थन के अभाव की रिपोर्ट सामने आई है, जो एक महत्वपूर्ण कारक हैं। इससे पता चलता है कि क्योंन शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को यह खामियाजा उठाना पड़ता हैं।' 'अध्ययन के नतीजे हमें प्रसव के बाद होने वाले अवसाद को दूर करने के बेहतर तलाशने में मदद कर सकते हैं।'

 

प्रसवोत्तर अवसाद, अवसाद का ही एक प्रकार है जो बच्चा होने के बाद कुछ महिलाओं को अनुभव होता है। यह आमतौर पर बच्चे के जन्म के बाद पहले चार से छह सप्ताह में होता है जबकि कुछ मामलों में कई महीनों तक इसके लक्षण नजर नहीं आते।



 

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