सिजोफ्रेनिया अब लाइलाज नहीं

सिजोफ्रेनिया में परिवार का सहयोग और डॉक्टरी इलाज मरीज के जीवन पर प्रभाव डालता है और मरीज दोबारा सामान्य जीवन जी सकता है, जानें कैसे।
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सिजोफ्रेनिया अब लाइलाज नहीं


मानसिक रोग सिजोफ्रेनियासिजोफ्रेनिया एक तरह की मानसिक बीमारी है, जिसमें इंसान अपने दिमाग में अपनी एक अलग काल्पनिक पहचान विकसित कर लेता है और वास्तविकता से अलग उसी पहचान में जीने लगता है।

 

सिजोफ्रेंनिया में व्यक्ति अपने होशोहवास खो बैठता है। ऐसे में वह कल्पना और यथार्थ का फ़र्क ही नहीं समझ पाता। दरअसल, वह अपनी कल्पनाओं में इतना आगे निकल जाता है कि उसे कल्पना ही सच लगने लगती है।

 

राष्ट्रीय राजधानी के करीब गुड़गांव में एक 55 साल के एक व्यक्ति को भ्रम था कि वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी का जासूस है। वह 15 सालों तक अपने घर में बंद रहा और महीने में एक बार सिर्फ बैंक से रुपये निकालने और जरूरत का सामान खरीदने के लिए बाहर निकलता था। उसका कहना था कि वह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को व्यक्तिगत रूप से जानता है।

 

सिजोफ्रेनिया के मरीज 55 वर्षीय व्यक्ति की बीमारी का खुलासा तब हुआ जब अमेरिका में रह रही उसकी बहन पुलिस की मदद से उसके पास पहुंची और उसे डॉक्टर के पास ले गई।

 

मनोविज्ञानी रुचि शर्मा कहती हैं कि ज्यादातर मामलों में सिजोफ्रेनिया के मरीज या उनके परिजन यह नहीं मानते कि उनको दिमागी बीमारी है।

 

कांउसलर गीता मेहता ने कहा, ''सिजोफ्रेनिया का संबंध मानसिक स्वास्थ्य और परिस्थितियों से है। लंबे समय के बाद इसके अलग-अलग तरह के मनोवैज्ञानिक लक्षण, वास्तविकता से अलग असामान्य मान्यताओं और व्यवहार में बदलाव आदि के रूप में सामने आते हैं।''

 

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसीन के एक लेख के मुताबिक, भारत में हर 1,000 में से तीन लोग सिजोफ्रेनिया के शिकार होते हैं। ज्यादातर 15 से 35 आयु वर्ग के पुरुष और महिलाएं इस रोग से प्रभावित पाए जाते हैं।

 

मेहता ने कहा, ''इस बीमारी का पता जितनी जल्दी चल जाए, मरीज के लिए उतना ही अच्छा होता है। शुरुआती चरण में ही उपचार शुरू करने से मरीज जल्दी ठीक हो सकता है।''

 

उन्होंने कहा, ''सिजोफ्रेनिया के मरीजों को परिवार और समाज के सहयोग की ज्यादा जरूरत होती है। परिवार का सहयोग और डॉक्टरी इलाज मरीज के जीवन पर प्रभाव डालता है और मरीज दोबारा सामान्य जीवन जी सकता है।''





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