आपके कई सारे जैन दोस्त होंगे... जो प्याज लहसुन नहीं खाते होंगे। क्या आपने कभी इसका कारण जानने की कोशिश की है। आज इस लेख में हम आपको इसका कारण बताते हैं।
जैसा अन्न वैसा मन अर्थात् जैसा भोजन हम खाते हैं वैसा ही प्रभाव हमारे तन मन पर पड़ता है और इसी के साथ हमारी प्रवृति भी वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। इसलिए जैनिज़्म में माना जाता है कि भोजन वही करना चाहिए जो सात्त्विक हो। सात्विक भोजन में दूध, घी, चावल, आटा, मूंग, लौकी, परवल, करेला आदि आते हैं। तीखे, खट्टे, चटपटे, अधिक नमकीन, मिठाईयां आदि पदार्थों राजसिक भोजन में आते हैं। लहसुन, प्याज, मांस-मछली, अंडे आदि जाति से ही अपवित्र होते हैं और इनकी गिनती तामसिक भोजन में होती है मतलब राक्षसी प्रवृति के भोजन कहलाते हैं।
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जैन केवल सात्विक भोजन करते हैं। वो प्याज-लहसुन नहीं खाते। इसके अलावा ये वैसी सब्जियां भी नहीं खाते जो जमीन के अंदर होती हैं। मतलब वे जड़ जो सब्जियों का ही रुप होती हैं। जैन लोगों का मानना है कि प्याज-लहसुन तासमिक भोजन है मतलब ये राक्षसी प्रवृति के भोजन होते हैं जिसके कारण इन्हें ग्रहण करने से इंसानों की सोच भी राक्षसों की तरह हो जाती है। इस कारण ये लोग अपने भोजन में इन दो चीजों का इस्तेमाल बिल्कुल भी नहीं करते।
कंदमूल से भी रहते हैं दूर
प्याज-लहसुन के अलावा जैन वे सब्जियां भी नहीं खाते जो जमीन के अंदर पैदा होती हैं। इन सब्जियों को कंदमूल कहते हैं। जैनियों का मानना है कि जमीन के नीच उगने वाली सब्जियों में कई सारे बैक्टिरिया और जीवाणु होते हैं जो हमें नग्न आंखों से नहीं दिखते। ऐसे में जब वे ये सब्जियां खाते हैं तो इन सूक्ष्म जीवों को भी खा लेते हैं जो एक तरह से अहिंसा ही होती है। जबकि जैनियों के जीवन का सबसे बड़ा धर्म और मार्ग है- "अहिंसा परमो धर्म"।
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आयुर्वेद में भी है मनाही
आयुर्वेद में भी प्याज-लहसुन खाने की मनाही है। आयुर्वेद में खाद्य पदार्थों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है- सात्विक, राजसिक और तामसिक।
सात्विक भोजन मतलब सादा खाना। राजसिक भोजन मतलब चटपटा खाना और तामसिक भोजन मतलब राक्षसी खाना। प्याज-लहसुन राजसिक और तामसिक भोजन के भाग हैं।
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