
भीड़ से थोड़ी घबराहट तो स्वाभाविक है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति सामाजिक अवसरों या सार्वजनिक स्थानों पर जाने से हमेशा बचने की कोशिश करे तो यह एगोराफोबिया का लक्षण हो सकता है। डर एक ऐसा छोटा शब्द है, जो अच्छे-अच्छे के होश उड़ाने के लिए काफी होता है। हमारी इस भावना को साहित्य और सिनेमा में न जाने कितनी बार अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त किया गया है।
हॉरर फिल्म देखकर डरना तो किसी के लिए भी स्वाभाविक है, लेकिन जब कोई इनसान सामाजिक माहौल से इतना डरने लगे कि हमेशा उसे अकेलापन रास आए तो यह एगोराफोबिया का लक्षण हो सकता है। यह एक तरह का सोशल फोबिया है, जो तनाव और चिंता से जुड़ा है।
कैसे होती है पहचान
इस समस्या से पीडि़त व्यक्ति को अपने आसपास के वातावरण से जुड़ी किसी भी सामाजिक स्थिति का सामना करने में घबराहट हो सकती है। ऐसे लोगों को आमतौर पर भीड़ भरे सार्वजनिक स्थलों, जैसे शॉपिंग मॉल, पार्टी, सिनेमा हॉल या रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर जाते हुए घबराहट होती है।
ऐसे लोगों को छोटी दूरी की यात्रा करने में भी बहुत डर लगता है। ऐसी स्िथतियों में थोड़ी बहुत घबराहट होना तो स्वाभाविक है, लेकिन पीडि़त व्यक्ति ऐसी जगहों पर जाने से हमेश बचता है। भीड़ वाली जगहों पर गला सूखना, दिल की धड़कन और सांसों की गति का बढ़ना, ज्यादा पसीना निकलना और हाथ-पैर ठंडे पड़ना आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं।
यहां तक कि इस समस्या से ग्रस्त लोग घबराहट की वजह से भीड़ वाली जगहों पर बेहोश भी हो जाते हैं। इसमें व्यक्ति के करीबी लोगों या आसपास के वातावरण को ही अपना सुरक्षा कवच बना लेता है और किसी भी हाल में उससे बाहर निकलने को तैयार नहीं होता। वैसे तो यह समस्या किसी को भी हो सकती है, लेकिन 20 से 40 वर्ष के आयु वर्ग के लोगों में इसके लक्षण ज्यादा नजर आते हैं।
क्या है वजह
नई दिल्ली स्थित विमहांस हॉस्पिटल के क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर पुलकित शर्मा के अनुसार, ' अभी तक इस समस्या के कारणों के बारे में स्पष्ट रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। फिर भी आत्मविश्वास की कीम, भीड़ से जुड़ा बचपन का कोई बुरा अनुभव और नकारात्मक विचार इसक मनोरोग के लिए जिम्मेदार होते हैं। कई बार मस्तिष्क के न्यूरोट्रांसमीटर में बदलाव आने की वजह से भी लोगों को छोटी-छोटी बातों से घबराहट होने लगती है। अनुवांशिकता की वजह से भी व्यक्ति को यह समस्या हो सकती है।'
संभव है उपचार
अगर सही समय पर उपचार कराया जाए तो यह समस्या आसानी से हल हो सकती है। इसमें दवाओं और काउंसलिंग के जरिये मरीज का उपचार किया जाता है। बिहेवियर थेरेपी के जरिये उसका आत्मविश्वास बढ़ाने की कोशिश की जाती है। आमतौपर छह माह से एक साल के भीतर व्यक्ति की मानसिक अवस्था सामान्य हो जाती है। डॉक्टर शर्मा बताते हैं कि ऐसी स्थिति में परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर आपके परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई दे, जो सार्वजनिक स्थानों पर जाने से हमेशा कतराये या वहां जाने के बाद उसकी तबीयत बिगड़ जाती हो, तो उसके लिए विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिए। उपचार के दौरान परिजनों को मरीज का मनोबल बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
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