अब जेनेटिकली मॉडीफाइड ब्‍लड से संभव है कैंसर का उपचार

कैंसर के इलाज के लिए वैज्ञानिकों ने एक नया प्रयोग किया जिसमें इंसान के खून से ही कैंसर का इलाज किया जाएगा।
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अब जेनेटिकली मॉडीफाइड ब्‍लड से संभव है कैंसर का उपचार


कैंसर जैसी बीमारी का अब आप खुद अपने खून से इलाज कर पाएंगे। वैज्ञानिकों ने एक नई तरकीब निकाली है जिसके जरिए इंसान के श्वेत रक्त कणिकाओं से ही कैंसर का इलाज हो जाएगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रयोग में इंसान के श्वेत रक्त कणिकाओं को शरीर से निकालकर इनमें जेनेटिक बदलाव कर, उसे फिर से शरीर में डाला जाएगा। इस प्रयोग से न केवल कैंसर का उपचार संभव होगा बल्कि कैंसर पलटकर भी नहीं आएगा।

वाशिंगटन के फ्रेड हचिंसन कैंसर अनुसंधान केंद्र में इस तरह के प्रयोग के प्रमुख स्टैनली रिडेल कहते हैं कि, यह तरीका ऐसे रोगियों पर आजमाया गया जिनका जीवन तीन से पांच महीने बचा था। उनके लिए सभी आशाएं खत्म हो चुकी थीं। हमने उनमें से कई को बचा लिया है और वे बिल्कुल भले-चंगे हैं।

कैंसर सेल्स

कैसे काम करती है ये प्रयोग

दरअसल श्वेत रक्त कणिकाएं आम तौर पर बैक्टीरिया और वायरस से लड़ती हैं जिस कारण वैज्ञानिकों ने इस तरीके को ''इम्युनोथेरेपी'' नाम दिया है। ''इम्युनोथेरेपी'' में श्वेत रक्त कणिकाएं शरीर से निकाली जाती हैं। इनमें प्रयोगशाला में जेनेटिक बदलाव किया जाता है ताकि वे कैंसर की पहचान कर उससे लड़ सकें। ऐसी लाखों कणिकाएं बनाई जाती हैं। फिर उन्हें वापस शरीर में डाल दिया जाता है। ''इम्युनोथेरेपी'' के उपचार में कीमोथिरेपी की जरूरत नहीं होती है।

 

''इम्युनोथेरेपी'' के परिणाम

मिलान विश्वविद्यालय की प्रो. चियरा बोनिनी ने बताया कि इस तरह के जेनेटिक बदलाव का लगभग जीवन भर असर रहने की उम्मीद है। इस प्रयोग से कैंसर दोबारा नहीं होता। उन्होंने दस रोगियों पर यह सफल प्रयोग किया। डॉ. रिडेल का कहना है कि ल्यूकेमिया के रोगियों पर यह 94 प्रतिशत सफल रहा है जबकि अन्य तरह के 40 ब्लड कैंसर रोगियों में आधे से अधिक रोगमुक्त हो चुके हैं। रोगियों पर तो बहुत अच्छे नतीजे मिले हैं लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि इसका असर कितने दिनों तक रहेगा।

 

किन पर प्रयोग

इसका अब तक केवल ल्यूकेमिया और अन्य "लिक्विड" कैंसर वाले रोगियों पर ही प्रयोग हुआ है। प्रोस्टेट, स्तन या अन्य ट्यूमर पर इसका प्रयोग अभी नहीं किया गया है। अभी इसके साइड इफेक्ट पर भी बहुत काम नहीं हो पाया है। यह प्रयोग कई देशों में चल रहा है और रोगियों को अलग-अलग जगह अलग-अलग राशि भी खर्च करनी पड़ रही है।

 

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