लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान: संसद भवन- जहां देश की सांसें बसती हैं। जो लाल बलुआ पत्थरों से बनी है और जिसकी दीवारें चुपचाप लोकतंत्र की गवाही देती हैं। भारत की धड़कन बसती है इस इमारत में। ये सिर्फ गुंबदों और बहसों की इमारत नहीं है। ये है 140 करोड़ लोगों की आवाज का प्रतीक भी है। यहां नीतियां बनती हैं और देश की दिशा तय होती है। ऐसे में जब किसी देश की संसद पर हमला होता है, तो असल में निशाना क्या होता है? हमलावरों को एक संदेश देना था कि तुम सुरक्षित नहीं हो। तुम्हारा लोकतंत्र कमजोर है और तुम्हारे सिस्टम को तोड़ा जा सकता है।
संसद पर हमले का वो दिन
13 दिसंबर 2001 को संसद भवन का हर कोना वैसा ही था जैसा हर गुरुवार को होता है। भीड़भाड़, फाइलें, कदमों की आहट। गेट नंबर 1 पर तैनात सीआरपीएफ की एक महिला कांस्टेबल, कमलेश कुमारी यादव, रोज की तरह- चुपचाप, बिना सुर्खियों में आए अपनी ड्यूटी निभा रही थीं। न उन्हें कोई जानता था, न उनकी कोई अभिलाषा थी कि उन्हें कोई जाने। भीतर नेता अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त थे। अचानक बाहर से पांच आतंकियों ने संसद में घुसने की कोशिश की। जैसे ही हमलावरों ने संसद पर हमला किया, उसके अगले पांच मिनटों में कमलेश ने जो किया, वो संसद के इतिहास में बोले गए हर शब्द से ऊंचा गूंजा। उस दिन कमलेश अराजकता और संविधान के बीच खड़ी एकमात्र दीवार थीं।
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एक मां की आखिरी कॉल
कमलेश की एक आदत थी- हर दिन ड्यूटी से पहले अपने घर फोन करना। उस सुबह उन्होंने अपने पति राजकिशोर को कॉल किया और कहा कि बच्चे को स्वेटर पहना देना, दिल्ली की सर्दी बढ़ गई है। बातें वही थीं, जो रोजमर्रा की होती हैं- स्कूल, बच्चों की देखभाल, छोटे-छोटे पल। उन्हें क्या पता था कि ये आखिरी बार है जब वो पति की आवाज सुन रही हैं। 11:40 बजे के आस-पास, एक सफेद एम्बेसडर गाड़ी गेट नंबर 1 की तरफ तेजी से बढ़ी- लाल बत्ती और संसद का फर्जी स्टिकर। कमलेश को कुछ गड़बड़ लगा। सेना में रहते हुए जवानों में जो स्फूर्ति और चुस्ती सालों से खून में उतर चुकी होती है, ऐसे समय में वो सवाल नहीं करती, बस अपने काम पर लग जाती है।
11 गोली लगने के बाद भी निभाई जिम्मेदरी
कमलेश आगे बढ़ीं और चिल्लाईं कि रुको! पहचान दो। लेकिन अंदर बैठे लोग नहीं रुके। गोली चल गई। कमलेश भागीं नहीं। हमले में उन्हें 11 गोलियां लगीं। घायल होने के बाद जमीन पर गिरने से पहले उन्होंने एक ज़ोरदार चीख मारी, जो सिर्फ़ दर्द नहीं, चेतावनी थी। उस चीख ने बाकी के सुरक्षाकर्मियों को अलर्ट कर दिया। गेट्स तुरंत बंद कर दिए गए। सांसदों को सुरक्षित निकाला गया। जो दिन भारत का सबसे खतरनाक राजनीतिक जनसंहार बन सकता था, वो महज़ कुछ सेकंड में टल गया। कमलेश वहीं शहीद हो गईं, लेकिन अपने जज्बे को नहीं छोड़ा।
सेकेंड भर की देरी से जातीं सैकड़ों जानें
उस दिन नौ सुरक्षा कर्मियों और एक माली ने भी जान गंवाई थी। लेकिन जांच में सामने आया कि अगर कुछ सेकेंड की भी देरी होती, तो सैकड़ों लोगों की जान जा सकती थी। हमलावर सांसदों को निशाना बनाने के लिए ग्रेनेड और बम साथ लेकर आए थे। लेकिन वो वहां तक पहुंच ही नहीं पाए। क्योंकि एक मां ने उस पल वो निर्णय लिया जो कोई ट्रेनिंग नहीं सिखा सकती।
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सामान्य से परिवार की दिलेर महिला थीं कमलेश
कमलेश किसी आर्मी बैकग्राउंड से नहीं आई थीं। वो बिहार के समस्तीपुर जिले के छोटे से गांव- महुआ बगहानी की रहने वाली थीं। उनकी जिंदगी सरल लेकिन संघर्ष से भरी भी। जल्दी शादी हुई इसलिए जल्दी मां बनी गई थीं। 1994 में सीआरपीएफ में भर्ती हुईं। लेकिन किसी बड़े सपने को लेकर नहीं, बल्कि घर चलाने के लिए। दिल्ली में पोस्टिंग थी और बच्चे गांव में रह रहे थे। तस्वीरों और फोन कॉल्स से बच्चों की परवरिश देखती थीं। न कभी शिकायत की, न कभी थकीं। त्योहार आए-गए, जन्मदिन बिना केक के गुजर गए। लेकिन जब वर्दी पहनी, तो खुद को और परिवार से आगे अपनी ड्यूटी को रखा। 26 जनवरी 2002 को कमलेश कुमारी को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
(यह कहानी भारत रक्षा पर्व की एक पहल है)
लेखक- लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान (PVSM, AVSM, YSM, SM, VSM, PhD)