2020 की गर्मियों में, जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी, भारत की उत्तरी सीमाओं पर एक अलग ही तनाव पल रहा था। लद्दाख की बर्फीली घाटियों में चीन ने अपने निर्माण कार्य तेज कर दिए थे। ये वही इलाका था, जहां हवा ऐसी होती है कि सांस लेना भी संघर्ष बन जाता है, लेकिन भारतीय जवान उसी संघर्ष को रोज जीते हैं। यही वो समय था जब गलवान घाटी, जो दशकों से विवाद का विषय रही है, एक बार फिर सुर्खियों में आ गई। और इसी घाटी में एक नाम इतिहास में दर्ज हो गया- कर्नल बी. संतोष बाबू का।
साधारण शुरुआत, असाधारण कर्तव्य
तेलंगाना के सूर्यापेट से आने वाले संतोष बाबू की परवरिश बहुत साधारण परिवार में हुई थी। न ही वो दिखावे वाले थे, न ही अधिक बोलने वाले। लेकिन जो लोग उन्हें बचपन से जानते थे, वो एक बात हमेशा कहते हैं कि उनके भीतर एक स्थिरता थी। एक साफ सोच, जो उम्र के साथ और भी निखरती गई। उनकी महत्वाकांक्षा बिल्कुल स्पष्ट थी कि उन्हें देश की सेवा करनी है। 2004 में जब उन्होंने इंडियन आर्मी की वर्दी पहनी और बिहार रेजीमेंट में शामिल हुए, तब उनके सफर की असली शुरुआत हुई। आने वाले सालों में उन्होंने न केवल दुर्गम इलाकों में कमान संभाली, बल्कि एक ऐसे लीडर के रूप में खुद को स्थापित किया, जो मुश्किल हालात में भी शांत और स्पष्ट रहता है।
गलवान- एक संवेदनशील इलाका
गलवान घाटी कोई सामान्य सीमा क्षेत्र नहीं है। यह उस जगह का नाम है जहां रणनीति, भूगोल और इतिहास की टकराहट होती रही है। इसकी भौगोलिक स्थिति इसे भारत के लिए बेहद अहम बनाती है और यहां से श्योक नदी और दौलत बेग ओल्डी जैसे अहम सैन्य ठिकानों तक पहुंच बनती है। चीन की कोशिश यही रही है कि इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी मज़बूत कर वह दबाव बना सके।
जून 2020 में जब तनाव चरम पर था, कर्नल संतोष बाबू को गलवान घाटी में एक बेहद संवेदनशील जिम्मेदारी दी गई कि वो सीमा पर हो रहे निर्माण और समझौते के उल्लंघन को रोकें। खास बात ये थी कि दोनों देशों के बीच तय नियमों के मुताबिक, आमने-सामने की बातचीत के दौरान हथियार नहीं ले जाया जा सकता था। इसलिए संतोष बाबू बिना हथियार बिना हथियार के, अपने हौसले के साथ थे।
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बिना हथियार, दुश्मनों का किया सामना
15 जून की शाम, जब कर्नल बाबू अपनी टीम के साथ उस पोस्ट तक पहुंचे जिसे चीनी सेना को हटाना था, उन्होंने देखा कि समझौते का उल्लंघन हो चुका है। उन्होंने विरोध दर्ज कराया, और यही टकराव झड़प में बदल गई। उनके पास हथियार नहीं थे, लेकिन पत्थर, लोहे की छड़ें और कील लगे डंडे जरूर थे। इतनी ऊंचाई पर, जहां हर कदम भारी होता है, वहां शारीरिक ताकत से ज्यादा जरूरत होती है मनोबल की। कर्नल बाबू गंभीर रूप से घायल हुए, लेकिन आखिरी सांस तक उन्होंने अपने सैनिकों का हौसला बनाए रखा। उन्होंने जोर से आवाज दी- "बिहार रेजीमेंट, पीछे मत हटना!" उनकी इस आवाज़ ने न सिर्फ उस झड़प में उनके जवानों को शक्ति दी, बल्कि आने वाले समय में भारत के सैन्य इतिहास को एक नई प्रेरणा भी दी।
जब एक परिवार ने पूरी दुनिया को हिम्मत दिखाई
जब उनकी शहादत की खबर सूर्यापेट पहुंची, तो परिवार के लिए वो पल किसी झटके से कम नहीं था। लेकिन उनकी पत्नी संतोषी और दो छोटे बच्चों ने जिस संयम और साहस के साथ देश के सामने खड़े होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी, वो भी एक मिसाल बन गया। उनकी बेटी की वो तस्वीर जिसमें वह अपने पिता की फोटो को सैल्यूट कर रही थी, सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुई। वो तस्वीर एक प्रतीक बन गई कि देशभक्ति सिर्फ सीमा पर खड़े होने तक सीमित नहीं है, यह विरासत बनकर आगे भी चलती है।
शांति की कीमत और संकल्प की गूंज
गलवान की घटना के बाद सिर्फ सरहद पर नहीं, बल्कि देश के भीतर भी एक नई चेतना आई। भारत की छवि एक शांतिप्रिय देश की रही है, जो बातचीत में विश्वास रखता है। लेकिन कर्नल संतोष बाबू और उनके साथियों ने दुनिया को ये बताया कि यह चुप्पी कमजोरी नहीं है। यह संयम है और जब वक्त आता है, तो भारत पीछे नहीं हटता। उनकी शहादत ने हमें ये एहसास कराया कि हमारी सीमाएं सिर्फ नक्शों पर नहीं बनतीं, वे उन लोगों की हिम्मत से बनती हैं जो हर कीमत पर उन्हें बचाते हैं।
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एक नाम, जो हर सिपाही के दिल में जिंदा रहेगा
आज कर्नल संतोष बाबू के नाम पर स्कूल हैं, सड़कें हैं, स्मारक हैं। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाज़ा गया। लेकिन असली श्रद्धांजलि उनके सिद्धांत हैं, जो उन्होंने अपने साथियों को सिखाए कि नेतृत्व शोर से नहीं, संतुलन से होता है। अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रति सच्चे हो, तो इतिहास खुद तुम्हारा नाम याद रखेगा... और यही हुआ। आज जब भी गलवान घाटी की हवाएं चलती हैं, तो उसमें सिर्फ़ बर्फ की ठंडक नहीं, बल्कि उस एक व्यक्ति की गर्मजोशी भी महसूस होती है, जिसने वहां खड़े होकर ये संदेश दिया कि भारत अपनी सीमाओं की रक्षा करता है, और जरूरत पड़ी तो उसकी चुप्पी भी गूंज बन जाती है। कर्नल बाबू को उनकी बहादुरी और नेतृत्व के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो उनके प्रति देश की कृतज्ञता का प्रतीक है।
(यह कहानी भारत रक्षा पर्व की एक पहल है)
लेखक- लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान (PVSM, AVSM, YSM, SM, VSM, PhD)
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