चिकित्सकों के अनुसार शिशु के जन्म के समय का वजन उसके भावी स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधी क्षमता का निर्धारण करता है। गर्भ में शिशु का पोषण मां के रोजमर्रा के भोजन से ही नहीं बल्कि उसके शरीर में संचित भोजन से होता है। और इस लिए काफी हद तक बच्चे का स्वास्थ्य मां के जीवन भर हुए पोषण पर निर्भर करता है। अर्थात जन्म के समय शिशु का वजन गर्भावस्था और उससे पहले मां को मिले पोषण पर निर्भर करता है।
शिशु की वृद्धी का अर्थ उसके शारीरिक विकास से है, जिसे शरीर के वजन, लम्बाई, सिर बांहों व छाती आदि के व्यास से मापा जाता है। और फिर इन सभी की चुलना कर यह पता किया जाता है कि शिसु की वृद्धी ठीक प्रकार से हो रही है या नहीं। सामानयतः एक स्वस्थ शिशु अपने जीवन के पहले साल में सबसे तेजी से बढ़ता है।
शिशु का आदर्श वजन
लगभग सभी शिशुओं का वजन जन्म के तीन से चार दिन के भीतर कम होता है। लेकिन अगले सात से दस दिनों में वे फिर से वजन प्राप्त करने लगते हैं। शुरुआती तीन महिनों में शिशु का वजन लगभग 25 से 30 ग्राम प्रति दिन के हिसाब से बढ़ता है। लेकिन इसके बाद इस दर में थोड़ी कमी आ जाती है। सामान्यतः शिशुओं का वजन पांच महीनों में दोगुना तथा एकत साल में लगभग तीन गुना हो जाता है। हालांकि जन्म के वक्त कम वजन वाले शिशु इस श्रेणी में नहीं आते हैं।
कम वजन के साथ पैदा होने वाले शिशु पहले ही अपना वजन दोगना और एक साल में चार गुना कर लेते हैं। हालांकि एक साल के बाद उनकी भी यह गति उतनी तेज नहीं रहती। काफी सारे शिशुओं का वजन पहले पांच से छह साल के बीच बेहतर रहता है, लेकिन इसके बाद ये आंकड़े गिरते जाते हैं या फिर नियमित नहीं रहता। ऐसा इस कारण होता है क्योंकि इस समय के बाद केवल स्तनपान शिशु के लिए पर्याप्त नहीं रहता।
शिशु का वजन उसकी लम्बाई पर भी निर्भर करता है। इसलिए जन्म के समय यह जांचना बेहद जरूरी होता है कि शिशु का वजन सामान्य है या नहीं। शिशु का वजन उसकी लम्बाई के अनुरूप कम या ज्यादा हो सकता है। लम्बाई के कारण वजन कम होना कुपोषण का संकेत होता है।
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न्यून पोषण है वजह
न्यून पोषण के कारण शिशु और मातृत्व मृत्यु दर अधिक होती है और बच्चों में जन्म के समय वजन कम होता है। एनएफएचएस 2 के आंकड़ों के अनुसार 40.6 प्रतिशत भारतीय ग्रामीण महिलाओं का वजन कम होता है। इसके साथ कम उम्र में और बार-बार मां बनने के कारण मातृत्व मृत्यु दर में वृद्धि और बच्चों में जन्म के समय कम वजन होने की समसस्या होती है।
इसके अलावा 53.9 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं अनीमिया से ग्रस्त हैं। अनीमिया का महिलाओं और शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है और यह मातृत्व और प्रसव पूर्व मृत्यु का प्रमुख कारण होता है। अनीमिया के कारण समय से पूर्व डिलीवरी तथा जन्म के समय शिशु के कम वजन होने का खतरा बढ़ा जाता है।
भारत के कई गावों में जहां लोग काफी सक्रिय थे और खानपान में पूर्ण शाकाहारी थे, वहां भी लोग मधुमेह से ग्रसित पाए गए। ये बात चौकाने वाली थी, लेकिन एक शोध ने इस गुत्थी को काफी हद तक सुलझाने में मदद की। दरअसल इन गांवों में मांओं को मिलने वाला पोषण काफी निचले दर्जे का होता है और यही कई रोगों और कम प्रतिरोधी क्षमताओं के होने का कारण बनता है।
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क्या कहते हैं शोध
कई शोध शिशु के वजन के संदर्भ में कुछ चौकानें वाले तथ्य लेकर आते हैं। जैसा कि अमरीकी जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स छपे अध्ययन के अनुसार ब्रिटेन के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि अगर जीन का एक खास अंश मां की तरफ से बच्चे में आया है तो नवजात शिशु का वजन 93 ग्राम ज्यादा हो सकता है। और यदि यही जीन नानी की ओर से आया हो तो शिशु 155 ग्राम तक अधिक वजनी हो सकता है।
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दूसरे शब्दों में कहें तो इस शोध में वैज्ञानिकों का कहना है कि नवजात शिशु का वजन सीधे नानी के जीन से जुड़ा हो सकता है। उनका कहना था कि जीन में अंतर होने से बच्चों के वजन में 155 ग्राम तक का फर्क हो सकता है।
इस शोध में यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के प्रोफेसर गुर्डन मूर और उनके सहयोगियों ने तीन अलग-अलग अध्ययनों में 9500 बच्चों और उनकी मां से लिए गए नमूने से एक जीन का पता लगाया था, जिसका नाम पीएचएलडीए 2 रखा गया। शोधकर्ताओं ने यह भी बताया था कि आरएस 2 जीन जो कि केवल मनुष्य में पाया जाता है, वह बच्चों के नवजात बच्चे की मां की सुरक्षा तथा शिशु के सामान्य विकास के लिए बेहतर है।
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