दुनियाभर में फैली कोरोनावायरस की दहशत के बीच अस्पताल इसके संक्रमण से निपटने के लिए 100 साल पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए कमर कस रहे हैं। इस तकनीक को टीके के जमाने से पहले फ्लू और खसरे से लड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। हाल ही में SARS और इबोला के खिलाफ भी इस तकनीक का प्रयोग करने का प्रयास किया गया था लेकिन इस बात को लेकर साइंटिस्ट आस्वस्त नहीं है कि ये तकनीक कोरोना पर काम करेगी या नहीं। इस तकनीक में कोरोना सर्वाइवर द्वारा दान किए गए रक्त का उपयोग किया जाएगा ताकि नए रोगियों को इस संक्रमण से बचाया जा सके।
चीन में डॉक्टरों ने COVID-19 के उपचार में इस सदियों पुरानी तकनीक को आजमाने का प्रयास किया जिसे इतिहास की पुस्तक में को "convalescent serum" कहा जाता है लेकिन मौजूदा वक्त में इसे डोनेटेड प्लाज्मा कहते हैं। इसमें सर्वाइवर नए संक्रमितों को अपना प्लाजमा दान करता है। वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी अस्पतालों का एक समूह इस बाबत अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन से अनुमति ले रहा है ताकि संक्रमण के उच्च जोखिम वाले लोगों के लिए इस संक्रमण का एक संभावित उपचार और वैक्सीन तैयार कर अस्थायी सुरक्षा दी जा सके। हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि यह काम करेगा।
जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डॉ. अर्तुरो कैसादेवॉल का कहना है कि जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, तब तक हमें इसके बारे में पता नहीं चलेगा, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य उत्साहजनक हैं। डॉक्टर ने इसके लिए एफडीए में आवेदन दाखिल किया है। वहीं एफडीए के एक प्रवक्ता ने कहा, " विभाग इस पर तेजी से काम कर रहा है और प्लाज्मा की उपलब्धता को सुविधाजनक बनाने का काम कर रहा है।
इस उपचार से जुड़ी कुछ जरूरी बातें
आखिर क्या है संभावित तकनीक
सेंट लुइस में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के डॉ. जेफरी हेंडरसन ने कहा कि इसके बारे में सुनने पर आपको लग सकता है कि आप पाषाण युग में वापस लौट रहे हैं, लेकिन सर्वाइवर के रक्त का उपयोग करने की कोशिश एक अच्छा वैज्ञानिक कारण है। डॉ. जेफरी वहीं व्यक्ति हैं, जिन्होंने मेयो क्लीनिक के अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर एफडीए में आवेदन किया है। दरअसल जब कोई व्यक्ति किसी विशेष रोगाणु से संक्रमित होता है, तो उसका शरीर संक्रमण से लड़ने के लिए एंटीबॉडी नाम के विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए प्रोटीन बनाना शुरू कर देता है। व्यक्ति के ठीक होने के बाद ये एंटीबॉडी उनके रक्त में कुछ महीने से लेकर कुछ वर्षों तक तैरते रहते हैं, जिन्हें विशेष रूप से प्लाज्मा कहते हैं। यह हमारे रक्त का एक तरल हिस्सा होता है।
पहले से तय इस अध्ययन में ये जांच की जाएगी कि संक्रमण के सर्वाइवर के शरीर में मौजूद एंटीबॉडी से भरपूर प्लाज्मा को कोरोना के नए संक्रमिक रोगियों में डालने से क्या उस व्यक्ति को वायरस से लड़ने में मदद मिलेगी। अगर इस तरकीब ने काम किया तो शोधकर्ता यह जानने की कोशिश करेंगे कि क्या ये उपचार रोगियों को जीवित रहने की बेहतर संभावना दे सकता है और सांस संबंधी मशीनों की आवश्यकता को कम कर सकता है।
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क्या ये टीके की तरह काम करता है ?
टीके के विपरीत दूसरा कोई भी उपचार सुरक्षा के लिहाज से केवल अस्थायी होगा। वैक्सीन लोगों के इम्यून सिस्टम को बाहरी रोगाणु को निशाना बनाने के लिए अपने स्वयं की एंटीबॉडी बनाने के लिए ट्रेन्ड करता है। प्लाज्मा देने के पीछे मकसद यही है कि किसी संक्रमित व्यक्ति को एक अस्थायी उपचार दिया जाए ताकि उसका इम्यून सिस्टम एंटीबॉडी का निर्माण कर सके। फिर भी अगर एफडीए सहमत होता है तो दूसरे अध्ययन में उन लोगों को प्लाज्मा इन्फ्यूजन वाली एंटीबॉडी दी जाएगी, जो अस्पताल में काम कर रहे हैं और कोरोना के अधिक खतरे की चपेट में हैं। न्यूयॉर्क के मोंटेफोर हेल्थ सिस्टम और अल्बर्ट आइंस्टीन कॉलेज ऑफ मेडिसिन की डॉ. लुइस-एने पिरोफस्की ने कहा कि इसमें नर्सिंग होम शामिल होंगे, जो बीमार होने पर भी दूसरे लोगों को कुछ सुरक्षा देने की उम्मीद में काम कर रहे हैं।
डॉक्टर ने कहा कि हमें वायरस के फैलने वाली चेन को तोड़ने में सक्षम होने की आवश्यकता है । इतना ही नहीं हमें बीमार लोगों की मदद करने में सक्षम होने की भी आवश्यकता है।"
क्या है इतिहास
इस प्लाज्मा इन्फ़्यूज़न का इ स्तेमाल 1918 में फ्लू महामारी के दौरान सबसे प्रसिद्ध रूप से किया गया था और टीके व आधुनिक दवाओं के आने से पहले कई अन्य संक्रमणों जैसे कि खसरा और बैक्टीरियल निमोनिया के खिलाफ भी प्रयोग किया गया था।
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डॉक्टरों का कहां से मिलेगा प्लाजमा
ब्लड बैंक प्लाज्मा दान लेते हैं ठीक उसी तरह जैसे वे ब्लड डोनेट करने वालों से ब्लड लेते हैं। अस्पतालों और आपातकालीन रूम में हर दिन नियमित रूप से प्लाज्मा का उपयोग किया जाता है। अगर किसी को केवल प्लाज्मा ही दान करना है तो उसका रक्त एक ट्यूब के माध्यम से खींचा जाता है और प्लाज्मा अलग हो जाता है और बाकी रक्त वापस डोनेट करने वाले के शरीर में पहुंच जाता है। इसके बाद फिर प्लाज्मा की जांच की जाती है और उसे शुद्ध कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि यह किसी प्रकार की दिक्कत न दे और किसी रक्त-जनित विषाणु को पैदा न करें और उपयोग करने के लिए सुरक्षित हो।
COVID-19 शोध के लिए अंतर सिर्फ यह होगा कि ये देखा जाएगा कि दान करने वाले लोग कौन हैं। क्या ये कोरोनवायरस से उबरने वाले लोग हैं या नहीं। वैज्ञानिक यह भी देखेंगे कि दान किए गए प्लाज्मा की एक यूनिट में कितने एंटीबॉडी हैं। परीक्षण अभी विकसित किए जा रहे हैं जो आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि अभी इस बात की जानकारी नहीं है कि कितनी डोज सही रहेगी और एक सर्वाइवर कितनी बार प्लाजमा डोनेट कर सकता है। शोधकर्ता डोनेटर को खोजने के बारे में चिंतित नहीं हैं, लेकिन सावधानी से स्टॉक बनाने में कुछ समय जरूर लगेगा।
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