जरा सोचकर देखिए कि एक बच्चा जिसके पिता फौज में हों और उसे हर दिन मीडिया से ऐसी खबरें मिल रही हों कि आज एक फौजी मारा गया, आज दो फौजी मारे गए या किसी देश ने भारत पर अटैक कर दिया है...ऐसी खबरों का उन बच्चों के मनोविज्ञान पर क्या असर पड़ता होगा, जिनके पिता या माता फौज में हैं। इसके बारे में हम शायद ही सोचते होंगे। बच्चों के इसी मनोविज्ञान का जिक्र ‘मेरा फौजी कॉलिंग’ फिल्म में किया गया है। ‘मेरा फौजी कलिंग’ 11 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। इस फिल्म में फौजी की बेटी आराध्या पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) में चली जाती है। पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रैस डिसऑर्डर क्या है, लक्षण क्या हैं, उपाय क्या हैं और फिल्म में इस पोस्ट ट्रोमैटैकि स्ट्रेस डिसऑर्डर की क्या महत्ता है?, इसके बारे में हमने बात की फिल्म के को-प्रोड्यूसर विष्णु एस उपाध्याय से। इसके अलावा न्यूरोलोजिस्ट और मनोचिकित्सक से भी इस बीमारी के अन्य बिंदुओं को समझा।
क्या बोले फिल्म के को-प्रोड्यूसर
को-प्रोड्यूसर विष्णु एस उपाध्याय ने फिल्म के बारे में बात करते हुए कहा कि यह फिल्म पुलवामा अटैक से प्रभावित होकर बनाई गई है। साल 2019 में पुलवामा अटैक हुआ था। जिसके बाद मीडिया से लेकर हर-गली मोहल्ले में पुलवामा अटैक की चर्चा थी। ऐसी ही चर्चा मेरा फौजी कॉलिंग फिल्म की बाल कलाकर अराध्या के बाल मन पर असर डालती है। वह दिन भर चर्चा सुनती है कि हमारे सैनिक मारे गए, इस चर्चा से उसके मन में डर बैठ जाता है। वह सोचती है कि कहीं मेरे भी पिता तो नहीं मार दिए गए और एक दिन उसके पिता मार दिए जाते हैं। हर साल की तरह जब उसके पिता इस साल घर नहीं आते तो वह घर वालों से पूछती है कि उसके पिता क्यों नहीं आए। इसी डर की वजह से वह बच्ची पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर में चली जाती है।
इस डिसऑर्डर के बारे में बात करते हुए विष्णु कहते हैं कि ऐसे डिसऑर्डर से बच्चों को बचाने में मीडिया बहुत बड़ी भूमिका निभा सकता है। वे कहते हैं कि हम आयदिन टीवी पर नकारात्मक सामग्री को देखते हैं, लेकिन कभी सोचते नहीं कि बच्चों के मन पर इसका क्या असर पड़ेगा। बच्चों का मन कोमल होता है। उनकी कल्पना शक्ति तेज होती है। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि बच्चों ने टीवी पर कोई सामग्री देखी और किसी लड़की का बलात्कार कर दिया। लेकिन ब्रोडकास्टिंग मीडिया को अपनी सामग्री का चयन बहुत ध्यानपूर्वक करना चाहिए, ताकि बच्चों को इस तरह के डिसऑर्डर या नकारात्मक परवरिश न हो।
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क्या होता है पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (What is post traumatic stress disorder)
दिल्ली के मैक्स अस्पताल में न्यूरोलोजिस्ट डॉ. मुकेश कुमार का कहना है कि पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर एक तरह का मानसिक रोग है। जो किसी तरह के ट्रॉमा के साथ जुड़ा होता है। यह ट्रॉमा मानसिक और शारीरिक दोनों तरह का हो सकता है। कोई अप्रिय घटना किसी के साथ घटित होने का खुद भी साक्षी हो सकता है और उसने किसी के साथ देखा भी हो। जब भी ऐसी घटनाएं उसके फ्लैशबैक से आती हैं तब वह परेशान हो जाता है।
डॉ. मुकेश कुमार का कहना है कि इस तरह के डिसऑर्डर में एक असहजता दिखाई देती है। पीड़ित का शरीर ठीक दिखता है,लेकिन उनके शरीर में लक्षण अलग दिखाई देते हैं। यह बीमारी महीनों से लेकर सालों तक चलती है। डॉ. कुमार के मुताबिक यह एक तरह का साइकोलोजिकल डिसऑर्डर है पर न्यूरोलोजिस्ट बताता है कि उस व्यक्ति को कोई लाइलाइज बीमारी नहीं है, इसका इलाज संभव है।
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क्या हैं बीमारी के लक्षण (What are symptoms of post traumatic stress disorder)
- फ्लैशबैक में चले जाना
- नींद प्रभावित होना
- नींद को लेकर डॉ. मुकेश कुमार ने बताया कि ऐसे लोगों को नींद नहीं आती। नींद में तीन फैक्टर होते हैं। पहला नींद आने में कितना टाइम लगता है। दूसरा पूरी रात में कितनी बार नींद टूटती है। तीसरा जब सुबह उठते हैं तो थकावट महसूस करते हैं या फ्रैश फील करते हैं।
- डिप्रेशन
- सुसाइडल टेंडेंसी
- परेशान कर देने वाले सपने
- बार-बार किसी अप्रिय घटना के बारे में सोचना। पसीना आना, हाथ-पैरों का थरथराना
- इमोशनल स्ट्रेस होना
- नकारात्मक विचारों का आना
- पैनिक अटैक
- बच्चों में चिड़चि़ड़ापन और गुस्सा
क्या है उपाय
भोपाल के बंसल अस्पताल में मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी के मुताबिक पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर अब तक सबसे अधिक नजरअंदाज की गई समस्या है। इस डिसऑर्डर का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है। बच्चों में इसके प्रभाव जटिल होते हैं। यह डिसऑर्डर लंबे समय में बच्चों के विकास पर असर डालता है। अगर बच्चे यौन शोषण के साक्षी रहें हैं, तो उनके अंदर भय, शर्म, हताशा, कुंठा जैसे भाव भरे होते हैं। वे बच्चे अपना जीवन ठीक से नहीं गुजार पाते या माता पिता के संबंध ठीक नहीं रहे होते तब भी बच्चे जब बड़े होकर ऐसी परेशानियां देखते हैं तो विचलित हो जाते हैं। उनके भावों पर नियंत्रण नहीं रहता है। जल्दी गुस्सा आ जाता है। वे खुद से जूझते रहते हैं। आसपास के समाज में जैसे ही कोई सिमेलैरिटी दिखाई देती है तो वे परेशान हो जाते हैं।
डॉ. त्रिवेदी के मुताबिक ऐसे बच्चों के साथ लगातार संवाद जरूरी है। अगर कोई बच्चा सुसाइडल टेंडेंसी दिखा रहा है या उसे ठीक से नींद नहीं आ रही या रात में बुरी तरह डर जाता है तो उससे बात करें। मनोचिकित्सक ऐसी परेशानी का इलाज काउंसलिंग से करते हैं। तो वहीं, न्यूरोलोजिस्ट डॉ. मुकेश कुमार का कहना है कि ऐसे बच्चों की काउंसलिंग के अलावा गंभीर परिस्थितियों में दवाएं भी दी जाती हैं। इसके अलावा योग, मेडिटेशन करवाया जाता है। ऐसे बच्चों की नींद बहुत जरूरी है। उनके दिमाग में वो अप्रिय घटना वापस न आए उसके लिए परिवार को कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा खुश रहे। नकारात्मक सामग्री से बच्चों को दूर रखें। न्यूरोलोजिस्ट का कहना है कि अगर एक महीने से ज्यादा समय से किसी बच्चे में पीटीएसडी के लक्षण दिखाई दे रहे हैं तो तुरंत उसे डॉक्टर को दिखाएँ।
मेरा फौजी कॉलिंग फिल्म एक फौजी की कहानी है। यह फिल्म 11 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। दिल्ली में यह फिल्म टैक्स फ्री है। इस फिल्म की सफलता यह है कि फिल्म में बच्चों के मनोविज्ञान को भी प्रमुखकता से लिया गया। अमूमन हम बच्चों को बच्चा समझकर उन्हें महत्ता नहीं देते। सर्दी, खांसी, जुकाम जैसी परेशानियां ऊपरी तौर पर दिख जाती हैं, लेकिन वे बीमारियां जो मन के भीतर हैं, उनके बारे में शायद ही सोच पाते हैं। इसलिए इस फिल्म ने एक फौजी की कहानी के साथ-साथ बच्चों के मनोविज्ञान पर भी जागरूकता देने का काम किया है।
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