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ऑटिज्म से जुड़ी ये 5 बातें हैं मिथक, डॉक्टर से जानें सच्चाई

Myths and Facts About Autism Disorder: भारत में समय के साथ ऑटिज्म के बारे में लोग बात तो करने लगे हैं, लेकिन इससे जुड़ी भ्रांतियां भी बढ़ रही हैं।
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ऑटिज्म से जुड़ी ये 5 बातें हैं मिथक, डॉक्टर से जानें सच्चाई


भारत में समय के साथ कई प्रकार के मानसिक विकारों के बारे में खुलकर बात होने लगी है। इन्हीं में से एक है ऑटिज्म। ऑटिज्म, जिसे मेडिकल भाषा में ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) कहा जाता है, एक न्यूरो-डेवलपमेंट स्थिति है जो व्यक्ति के व्यवहार और सामाजिक बातचीत के तरीके को प्रभावित करती है। भारत में समय के साथ ऑटिज्म के बारे में लोग बात तो करने लगे हैं, लेकिन इससे जुड़ी भ्रांतियां भी बढ़ रही हैं। इन भ्रांतियों के कारण न सिर्फ ऑटिज्म से पीड़ित लोगों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, बल्कि कई बार पेरेंट्स अपने ही बच्चों को हीन भावना से भी देखने लगते हैं। यही कारण है आज इस लेख के माध्यम से हम आपको बताने जा रहे हैं ऑटिज्म से जुड़े 5 मिथक और उनकी सच्चाई।

दुनिया में क्या है ऑटिज्म की स्थिति

वैश्विक स्तर पर ऑटिज्म की स्थिति की बात की जाए, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनियाभर में हर 100 में से 1 बच्चा ऑटिज्म से प्रभावित है। अफसोस की बात तो ये है कि भारत जैसे देश में लोग ऑटिज्म को पागलपन से जोड़कर देखते हैं। जिसकी वजह से इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरूकता की कमी देखी जाती है।

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मिथक 1 - ऑटिज्म माता-पिता की गलती होती है

सच्चाई- इस सवाल का जवाब देते हुए नोएडा के मनोरोग क्लिनिक के डॉ. आर के बंसल का कहना है कि ज्यादातर लोगों का ये मानना होता है कि अगर किसी बच्चे को ऑटिज्म है, तो इसके लिए पूरी तरह से माता-पिता जिम्मेदार हैं। पेरेंट्स ने बच्चे को सही तरीके से सिखाया नहीं है। लेकिन ये धारणा पूरी तरह से गलत है। ऑटिज्म एक न्यूरो-बायोलॉजिकल स्थिति है जिसका कोई संबंध इस बात से नहीं है कि बच्चे का पालन-पोषण कैसा हुआ। अमेरिकन एकेडमी ऑफ पेडियाट्रिक्स द्वारा की गई एक रिसर्च के अनुसार, ऑटिज्म का कारण मुख्यतः जीन और मस्तिष्क के विकास से संबंधित होता है।

मिथक 2- ऑटिज्म वाले बच्चे बोल नहीं सकते

सच्चाई- यह कहना कि ऑटिज्म वाले सभी बच्चे बोल नहीं सकते, पूरी तरह से गलत है। ऑटिज्म से जूझने वाले कुछ बच्चे वाकई वर्बल कम्युनिकेशन में कठिनाई महसूस करते हैं, लेकिन कई बच्चे अच्छी तरह से बात कर सकते हैं।

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मिथक 3- मिथक 2- वैक्सीन के कारण होता है

सच्चाई-  भारत जैसे कई विकासशील देशों में अक्सर लोग ये बात मानते हैं कि बच्चों को लगने वाली एमएमआर, खसरा और रूबेला जैसी वैक्सीन के कारण ऑटिज्म जैसे मानसिक विकार होता है। जिसके बावजूद इस मिथक के चलते कई माता-पिता बच्चों का टीकाकरण नहीं करवाते, जिससे समाज में खसरा, रूबेला जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है। लेकिन इस बात में बिल्कुल भी सच्चाई नहीं है। डॉ. आरके बसंल बताते हैं कि बच्चों को लगाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वैक्सीन उन्हें बीमारियों से सुरक्षा देने के लिए है। किसी भी वैक्सीन को लगाने से ऑटिज्म नहीं होता है।

मिथक 4- ऑटिज्म का कोई इलाज नहीं है।

सच्चाई- ऑटिज्म और विभिन्न प्रकार के मानसिक विकारों से जूझने वाले ज्यादातर लोगों के परिजनों का यही मानना होता है कि वह अब पूर तरह से ठीक नहीं होंगे, क्योंकि ऑटिज्म का कोई इलाज ही नहीं है। लेकिन इस बात में बिल्कुल भी सच्चाई नहीं है। डॉक्टर का कहना है कि बच्चों को अगर कम उम्र में ऑटिज्म का पता चल जाए, तो Occupational Therapy, Speech Therapy, और Sensory Integration Therapy के जरिए उनका इलाज किया जा सकता है। डॉक्टर की मानें, तो ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों से ज्यादा उनके माता-पिता को धैर्य रखने की जरूरत होती है। किसी भी एक थेरेपी या एक क्लास से इसका इलाज संभव नहीं है। ऑटिज्म से रिकवर करने के लिए बच्चों को कई थेरेपी की जरूरत होती है।

मिथक 5- ऑटिज्म एक दुर्लभ बीमारी है

सच्चाई- डॉ. आरके बसंल के अनुसार, ऑटिज्म अब दुर्लभ नहीं है, बल्कि डिजिटल जमाने में ये बहुत ही आम होता जा रहा है। समय के साथ स्वास्थ्य के प्रति लोगों की अधिक जागरूकता और बेहतर डायग्नोस्टिक साधनों के चलते अब ऑटिज्म के मामलों की पहचान ज्यादा हो रही है। इसलिए अब ये एक दुर्लभ बीमारी नहीं है। इसलिए इस बीमारी से घबराने की जरूरत नहीं है।

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ऑटिज्म के सामान्य लक्षण क्या हैं?

ऑटिज्म से पीड़ित व्यक्ति में नीचे बताए गए 5 लक्षण नजर आते हैं।

- दूसरे व्यक्ति से आंखों से संपर्क करने से बचना।

- किसी से बातचीत करना और सामाजिक गतिविधियों में कम हिस्सा लेना।

- एक ही चीज को कई बार-बार रिपीट करना।

- बोलने और आसपास होने वाली चीजों को पहचनाने में परेशानी होना।

- संवेदनाओं के प्रति अधिक या कम प्रतिक्रिया देना।

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निष्कर्ष

ऑटिज्म से जुड़ी भ्रांतियां समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। इन्हें तोड़ने के लिए हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा और हर बच्चे को बराबरी का अधिकार देना होगा। रिसर्च इस बात को बार-बार साबित कर चुकी है कि सही समय पर पहचाना गया और समर्थन मिले तो एक बच्चा सामान्य जीवन जी सकता है।

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