क्या त्वचा कैंसर से जुड़ी ये जरूरी बातें जानते हैं आप

शोधकर्ताओं का मानना है कि त्वचा कैंसर के डर और चिंता वाले लोग इस बीमारी के होने की वजहों को जानने और सावधानी बरतने के बजाय त्वचा पर सन्सक्रीन लगाने का विकल्प अधिक चुनते हैं।
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क्या त्वचा कैंसर से जुड़ी ये जरूरी बातें जानते हैं आप


कैंसर कोई भी हो, इसकी बात आते ही मन में डर सा पैदा हो जाता है। यह स्वभाविक भी है, क्योंकि कैंसर एक गंभीर रोग है। लेकिन इससे डरना कोई समाधान नहीं। सही जानकारी और सेहत की ठीक से देख-भाल कर इस बीमारी से बचे जा सकता है। चो चलिये आज जानते हैं त्वचा के कैंसर से जुड़ी कुछ जरूरी बातें।

 

Skin Cancer in Hindi

 

क्या कहता है शोध

शोधकर्ताओं का मानना है कि त्वचा कैंसर के डर और चिंता वाले लोग इस बीमारी के होने की वजहों को जानने और सावधानी बरतने के बजाय त्वचा पर सन्सक्रीन लगाने का विकल्प अधिक चुनते हैं। अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ बफ्फेलो में सहायक प्रोफेसर मार्क कीविनेमी के अनुसार, शोध में पता चला कि चिकित्सक लोगों को सन्सक्रीन के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने के दौरान मरीज की भावनाओं को ज्यादा ध्यान में रखना चाहते हैं।


इस शोध के अंतर्गत करीब 1,500 लोगों से उनके सन्सक्रीन इस्तेमाल से संबंधित सवाल किये गये। इन लोगों को व्यक्तिगत रूप से त्वचा के कैंसर का अनुभव नहीं था। प्रतिभागियों से त्वचा कैंसर के जोखिम का अंदाजा लगाने और इस बारे में उनकी चिंता से संबंधित सवाल किए गए। कुल प्रतिभागियों में से 32 प्रतिशत ने बताया कि वह कभी भी सन्सक्रीन का इस्तेमाल नहीं करते जबकि 14 प्रतिशत का जवाब था कि वे हमेशा सन्सक्रीन का इस्तेमाल करते हैं।

 

 

Skin Cancer in Hindi

 

 

गंभीर त्वचा कैंसर पर दो अंतरराष्ट्रीय परीक्षणों के नतीजों को बेहद उत्साहजनक पाया गया है। विकसित मेलानोमा के लिए हुए दोनों परीक्षणों का उद्देश्य शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को इस योग्य बनाना था कि वो ट्यूमर की पहचान और निवारण कर सके। शिकागो में अमरीकन सोसाइटी ऑफ़ क्लीनिकल ऑन्कोलॉजी की कांफ्रेंस में परीक्षण के परिणामों को जारी किया गया। परीक्षण में इस्तेमाल की गई दवाएं, पेम्ब्रोलाइज़ुमैब और निवोलूमैब जैविक प्रक्रिया के उस रास्ते को बंद कर देती हैं जिसका इस्तेमाल कर के कैंसर प्रतिरोधी तंत्र को गुमराह करता है।


अन्य अंगों तक फैल चुके त्वचा कैंसर, विकसित मेलानोमा, का उपचार काफ़ी मुश्किल होता है। कुछ साल पहले तक ऐसे मरीज़ औसतन छह महीने ही जीवित रह पाते थे।



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