जन्म के बाद से ही शिशु के कुल्हे के ज्वाइंट में होने वाली समस्या को हिप डिस्प्लेसिया कहते हैं। नोएडा स्थित मानस हॉस्पिटल के आर्थोपेडिक डॉक्टर सचिन भामू का कहना है कि हिप डिस्प्लेसिया का अर्थ यह है कि कुल्हे की हड्डी ज्वाइंट से उतरी हुई है या फिर वह उतरने वाली है। यह समस्या जन्म के बाद से देखी जाने वाली है। लेकिन इसकी सबसे अच्छी बात यह है कि इसके कई मामले खुद-ब-खुद ठीक हो जाती है। डॉक्टर का कहना है कि पहले इस बीमारी को सीडीएच (congenital dysplasia of the hip) के नाम से जाना जाता था। बाद में मेडिकल साइंस में इसके नाम में बदलाव किए गए, जिसके बाद इसका नाम Developmental dysplasia of the hip नाम दिया गया है। चलिए डॉक्टर सचिन से जानते हैं हिप डिस्प्लेसिया को विस्तार से-
हिप डिस्प्लेसिया के कारण (Causes of Hip Dysplasia)
अनुवांशिक कारण
डॉक्टर सचिन का कहना है कि अगर आपके परिवार में किसी व्यक्ति को यह बीमारी थी या फिर है, जो आगे चलकर अन्य बच्चों में यह बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा है। उदाहरण के लिए अगर बच्चे के माता-पिता या फिर भाई-बहन को इस तरह की परेशानी हुई है, तो परिवार में आगे होने वाले बच्चों को भी यह परेशानी हो सकती है। डॉक्टर सचिन का कहना है कि कभी-कभी यह बीमारी पूरी फैमिली में भी पाई जा सकती है। इसलिए ऐसे परिवार वाले लोगों को प्रेग्नेंसी के दौरान इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए और जन्म के बाद बच्चे की हरकतों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। ताकि समय रहते इस बीमारी के पता लग सके।
इसके अलावा परिवार में कोई अन्य जेनेटिक समस्या जैसे- गर्दन की समस्या (गर्दन टेढ़ी होना), शरीर की अन्य हड्डी और मांसपेशियों का टेढ़ा होने के कारण भी शिशु को यह समस्या (Hip Dysplasia) हो सकती है।
हार्मोनल कारण
प्रेग्नेंसी में अचानक हुए हार्मोनल बदलाव की वजह से भी बच्चे में यह समस्या देखी जा सकती है। डॉक्टर का कहना है कि प्रेग्नेंसी लास्ट टाइम में महिलाओं के अंदर हार्मोनव बदलाव काफी ज्यादा होते हैं। इस दौरान कुछ महिलाओं के ज्वाइंट्स में काफी laxity पाई जाती है, यानि उनके ज्वाइंट्स का मूवमेंट हद से ज्यादा होने लगता है, तो इस स्थिति में शिशु को हिप हिस्प्लेसिया (Hip Dysplasia) की समस्या हो सकती है।
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गर्भावस्था के दौरान होने वाली समस्या
गर्भावस्था की कुछ स्थिति में बच्चे उल्टा पैदा होते हैं। बच्चे का उल्टा पैदा होने से खिंचाव ज्यादा होता है, जिसकी वजह से भी बच्चे का हिप डिसलोकेट हो जाता है। इसके अलावा डिलीवरी के दौरान बच्चा गलत तरीके से खिंच जाने के कारण भी उसको यह समस्या हो सकती है।
भारत की क्या है स्थिति (Hip Dysplasia cases in India)
डॉक्टर सचिन का कहना है कि हिप डिस्प्लेसिया की समस्या भारत में काफी कम देखी गई है। भारत के अलावा अन्य देशों जैसे mediterranean countries और नॉर्थ अमेरिका जैसे देशों के शिशुओं में यह समस्या ज्यादा देखी गई है। भारत की बात करें, तो यहां 0.1 से 0.2 या 1000 में से 1 से 9 बच्चे इस समस्या से ग्रसित होते हैं। डॉक्टर का कहना है कि हिप डिस्प्लेसिया की सबसे अच्छी बात यह है कि ये एक ऐसी बीमारी है, जिसके अधिकतर मामले अपने आप ठीक हो जाते हैं।
भारत के गांव में क्यों है हिप हिस्प्लेसिया के मामले कम?
डॉक्टर सचिन का कहना है कि भारत में हिप डिस्प्लेसिया के मामले कम हैं। इसका कारण यह है कि हमारे यहां (अधिकतर गांव की महिलाओं) की महिलाएं बच्चे को जिस पॉजीशन में गोद में उठाती हैं, वही पोजीशन ट्रीटमेंट के दौरान बच्चे को बेल्ट द्वारा दिया जाता है। डॉक्टर का कहना है कि बच्चे को कमर पर मटके रखने की स्टाइल में पकड़ने से हिप डिस्प्लेसिया की समस्या खुद-ब-खुद ठीक हो सकती है। भारत के कई गांव और अन्य छोटे शहरों में बच्चे को इसी तरह से गोद लिया जाता है। इसलिए बच्चा अपने आप ठीक हो जाता है और इस गांव के क्षेत्रों में हिप हिस्प्लेसिया (hip dysplasia) के मामले कम सामने आते हैं।
कैसे किया जाता है निदान (Diagnose of Hip Dysplasia)
डॉक्टर सचिन कहते हैं कि हिप डिस्प्लेसिया जन्म के बाद से ही होने वाली बीमारी है। इसलिए इसके अधिकतक केसेज में बच्चा अपनी समस्या को बताने में सक्षम नहीं होता है। इसलिए कई अच्छे हॉस्पिटल्स में इसके लिए विशेष एग्जामिनेशन की तैयारी की जाती है अगर आपको आशंका है कि आपके बच्चे को यह समस्या हो सकती है, तो इसके लिए कुछ क्लीनिकल एग्जामिनेशन कराएं। सही तरीके से क्लीनिकल एग्जामिनेशन कराने से यह बीमारी जन्म के बाद से ही पता चल जाती है। इन एग्जामिनेशन में यह पता चलता है कि कुल्हे की हड्डी अपनी जगह से उतरी है या फिर उतरने वाली है। इसके लिए जन्म के तुरंत बाद परीक्षण (Early Examination) कराना होता है।
इसके अलावा डॉक्टर कुछ टेस्ट कराने की सलाह दे सकते हैं। जैसे - अल्ट्रासाउंड - अल्ट्रासाउंट में समस्या पकड़े जाने के बाद इलाज शुरू किया जाता है। अगर इससे भी क्लीयर नहीं होता है, तो फिर दूसरे एग्जामिनेशन करते हैं। इसमें एक्स-रे और एमआरआई कराने की भी सलाह दी जाती है। लेकिन अधिकतर मामलों में डॉक्टर के एग्जामिनेशन (Hip Dysplasia Examination) और अल्ट्रासाउंड से इस बीमारी का पता लगाया जा सकता है।
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डॉक्टर सचिन का कहना है कि अगर कुछ मामलों में एग्जामिनेशन मिस हो जाता है, तो आगे सप्ताहभर में मां बच्चे के लक्षण देखकर डॉक्टर के पास जाती हैं। जैसे- जन्म के सप्ताह बाद जब मां बच्चे को डाइपर पहनाती है, तो देखती है कि बच्चे के दोनों पैरों में बदलाव हैं। इसके अलावा डाइपर पहनाने में दिक्कत आना, डाइपर पहनाते वक्त कड़क-कड़क की हड्डियों से अवाज आना जैसे लक्षण दिखते हैं, जिसे पहचानकर मां डॉक्टर के पास जाती हैं। ऐसे कई मामले हैं, जिसमें मां खुद डॉक्टर के पास आकर बच्चे की समस्या बताती है।
हिप डिस्प्लेसिया के लक्षण (Symptoms of Hip Dysplasia)
- डायपर पहचाते वक्त एक कूल्हा दूसरे कुल्हे की तुलना में ज्यादा लचीला होना।
- पैरों को पूरी तरह से चौड़ा करने में परेशानी
- आलथी-पालथी मारकर बैठने में दिक्कत
- शिशु को पैर फैलाने में दिक्कत
- एक पैर दूसरे की तुलना में लंबा होना
- पैर छोटा-बड़ा होने के कारण बच्चा लंगड़ा (limping) सकता है।
- शरीर का भार वहन करने में परेशानी इत्यादि इसके लक्षण हो सकते हैं।

उम्र के हिसाब से हिप डिस्प्लेसिया का इलाज (Treatment of Hip Dysplasia)
शुरुआत से 6 महीने शिशु का
जन्म के बाद से शुरुआत के 6 महीने तक अगर बच्चे की इस समस्या को पकड़ लिया गया, तो इलाज करना बहुत ही आसान हो जाता है। इस उम्र के बच्चे को डॉक्टर अलग-अलग बेल्ट (पर्टीकुलर पॉजीशन वाले बेल्ट) पहचाते हैं। यह बेल्ट बच्चे की छाती से लेकर पैर तक होता है। इस बेल्ट के इस्तेमाल से बच्चे का हिप सही पॉजीशन ले लेता है। धीरे-धीरे हिप डिशलोकेशन की समस्या ठीक हो जाती है।
6 महीने से 2 साल तक के बच्चे का
6 महीने के बाद के बच्चे का इलाज बेल्ट के साथ-साथ मैन्युअली ट्रीटमेंट भी दिया जाता है। मैन्युअली ट्रीटमेंट में बच्चे को बिना चीरा लगाए, हिप के पॉजीशन को ठीक करने की कोशिश की जाती है। अगर इससे भी ठीक न हुआ, तो चीरा लगाकर हिप के पॉजीशन को ठीक करने की कोशिश की जाती है। इसमें प्लास्टर भी किया जाता है।
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2 से 5 साल तक के बच्चे का
18 माह या 2 साल की उम्र के बाद यानि जब बच्चा चलने लगता है, तब कुल्हे की हड्डी पर और अधिक खिंचाव होने लगता है, जिसके कारण हड्डी और अधिक डिसलोकेट हो सकता है। इससे कुल्हे की हड्डी का विकास टेढ़ा होता है और इससे ज्वाइंट खराब होने की संभावना बढ़ जाती है। इस उम्र के बच्चे को बेल्ट और मैन्युअली ट्रीटमेंट दिया जाता है। अगर फिर भी बच्चा ठीक न हो, तो सर्जिकल ऑप्शन भी अपनाया जा सकता है। इसमें हिप ज्वाइंट के पॉजीशन को ठीक करने की कोशिश की जाती है।
5 से 12 साल के बच्चे का
इस एज में बच्चे की स्थिति अधिक खराब हो सकती है। इसलिए डॉक्टर ऑपरेशन का सहारा लेते हैं। इसे ऑर्थोपेडिक्स भी कहते हैं।
किशोरावस्था और युवास्था
युवा अवस्था में यह समस्या कमर दर्द, चलने में परेशानी जैसी समस्या बनकर उभरती है। इस अवस्था तक आते-आते स्थिति गंभीर हो जाती है। ऐसे में डॉक्टर को सर्जरी का ही सहारा लेना पड़ता है।
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