कुछ लोग नासमझ होने के बावजूद खुद को स्मार्ट, चालाक और मजकिया समझते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह अपनी कमजोरियों से बिल्कुल अनजान होते हैं। जीं हां मनोवैज्ञानिकों के अनुसार ये पूरी तरह संभव है कि नजर न आने के कारण हम अपनी कमजोरियों के बारे में हद से ज्यादा अनजान हो जाते हैं।
शोध की मानें तो
1999 में कॉरनेल यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क के जस्टिन क्रुगर और डेविड डनिंग ने उन लोगों पर अध्ययन किया जो न केवल काबिलियत और स्किल्स में कमजोर थे, बल्कि उन्हें अपनी खामियों के बारे में जागरूकता भी नहीं थी। अपने रिसर्च पेपर में इन्होंने पीटर्सबर्ग में बैंक डकैती करने वाले मैकआर्थर व्हीलर का उदाहरण दिया। मैकआर्थर को 1995 में गिरफ़्तार किया गया था। मैकआर्थर व्हीलर ने दो बैंकों में बिना अपना चेहरा छिपाये दिन दहाड़े डकैती की थी। जब पुलिस ने मैकआर्थर को सिक्यूरिटी कैमरे का फुटेज दिखाया तो उसने विरोध करते हुए कहा, "ये कैसे हो सकता है, मैंने तो अपने चेहरे पर जूस का लेप लगाया था।" दरअसल वह यह मान रहा था कि चेहरे पर नींबू का रस लगा लेने से, वो सिक्यूरिटी कैमरे की नजर से बच जाएगा, यानी अदृश्य हो जाएगा।
हालांकि इसके नतीजों से ये जाहिर नहीं होता है कि किसी का ह्यूमर कैसा है? जस्टिन क्रुगर और डेविड डनिंग ने निष्कर्ष निकाला कि अपनी काबिलियत का सही आकलन करने के लिए भी वही दिमागी समझबूझ चाहिए जो काबिलियत हासिल करने के लिए चाहिए। इसीलिए नाकाबिल लोग न केवल नाकाबिल होते हैं बल्कि अपनी खामी जानने में भी अक्षम होते हैं।
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खुद से ज्यादा अपेक्षाएं
शोधकर्ताओं ने लगातार प्रयोगों के तहत उन लोगों के लॉजिकल तर्क शक्ति और व्याकरण के आधार पर परखा। इसमें स्पष्ट, सटीक जवाब होते हैं और किसी को भी इस आधार पर आंकना मुश्किल नहीं है। हर बार उन्हें एकसमान पैटर्न मिला। जो लोग टेस्ट में खराब कर रहे थे और उनका अपनी काबिलियत के बारे में भी आकलन खराब ही था।
अध्ययन में खराब प्रदर्शन करने वालों ने खुद की काबिलियत को बहुत बढ़ा-चढाकर आंका था। एक दूसरे अध्ययन में पाया गया कि सबसे अक्षम प्रतिभागी ये मानने को भी तैयार नहीं थे कि वह सबसे निचले पायदान पर हैं। अब क्रुगर और डनिंग ने लॉजिकल रीजनिंग में खराब प्रदर्शन करने वालों को प्रशिक्षित करना शुरु किया। इससे प्रतिभागियों की स्व-आकलन करने की क्षमता बेहतर हुई।
कहीं आप भी शिकार तो नहीं
शोध से यह भी पता चला कि ये केवल प्रयोगशालाओं की बात नहीं है, बल्कि अक्षमता और उसे स्वीकार नहीं कर पाने की स्थिति वास्तविक जीवन में भी होती है। अध्ययन से पता चला कि जिन शिकारियों को असला-बारूद के बारे में सबसे कम पता था, उन्हें अपनी क्षमताओं के बारे में कोई शक या संदेह था ही नहीं। अब इस मनोवैज्ञानिक स्थिति को दुनिया में डनिंग-क्रुगर इफेक्ट के नाम से जाना जाता है, जिसे मनोवैज्ञानिक मेटाकोगनिशन कहते हैं- यानी, अपनी सोच के बारे में सोचने की क्षमता। इस इफेक्ट से हमें अपने कई दोस्तों और सहकर्मियों की उनके अपने बारे में धारणाओं को समझने में मदद मिलती है।
इससे पहले की आप दूसरों के बारे में सोचते हुए आत्म-मुग्ध हो जाएं, ये जानना भी जरूरी है कि ऐसा आपके साथ हो रहा हो और आपको इसका अंदाजा नहीं हो।
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