अगर आपके बच्चे भी टीनएजर हैं तो आपने भी महसूस किया होगा कि आपके बच्चे रिश्तेदारों के घर चलने या फिर उनके घर पर आने से चिढ़ते हैं। आजकल के बच्चों का परिवारों से कटना और अपनी पर्सनल जिंदगी में व्यस्त रहना कोई कलयुगी कारण नहीं हैं। बल्कि इसके पीछे कई सांइटिफिक कारण हैं। बचपन से एकल परिवारों में रह रहे बच्चे जब रिश्तेदारों का जमावड़ा देखते हैं तो उन्हें घुटन महसूस होने लगती है। युवाओं के सामने अकसर ही ऐसी परिस्थिति आती है जब उन्हें दोनों में से किसी एक को वक्त देना होता है। दोनों ही रिश्ते खास होते हैं, इसलिए यह परिस्थिति उनके लिए किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होती है।
रिश्तेदारों के ऐसे प्रश्नों से चिढ़ते हैं बच्चे
- सरकारी नौकरी की तैयारी तो दुनिया कर रही है, तुम्हारी क्या अलग रणनीति है?
- मैनें सुना है तुम्हारा रिज़ल्ट आ गया है? अब आगे क्या करना है?
- शादी की उम्र तो हो गई है तुम्हारी, कोई पसंद है या हम लोग ढूंढें?
- जॉब कहां कर रहे हो आजकल, पैकेल कितना है तुम्हारा?
- बहुत मोटे हो गए हैं, सुबह जल्दी नहीं उठते क्या?
- इनते दुबले-पतले क्यों हो रहे हो, घर में खाना नहीं मिलता क्या?
- तुम तो फोन पर लगे हो, हमारे समय में तो ये सब था ही नहीं।

क्या है समस्या
अक्सर माता-पिता की शिकायत होती है कि बच्चे उन्हें व रिश्तेदारों को बिलकुल वक्त नहीं देते हैं और सिर्फ दोस्तों में ही लगे रहते हैं। वहीं बच्चों की शिकायत होती है कि उनके अभिभावक उन्हें दोस्तों के साथ एंजॉय नहीं करने देते हैं। ऐसे में दोनों के बीच मनमुटाव की स्थिति बनने लगती है जिसे जेनरेशन गैप भी कह सकते हैं। दोनों ही कोशिश करें तो इस समस्या को खत्म किया जा सकता है। ज़रूरी है तो एक-दूसरे को समझने की। रिश्तेदारों और दोस्तों के कारण अपने रिश्ते में परेशानी न लाएं। पेरेंट्स को समझना चाहिए कि बच्चों के लिए दोस्ती उतनी ही ज़रूरी होती है, जितनी उनके लिए रिश्तेदारी। वहीं बच्चों को भी पेरेंट्स की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए, हमेशा दोस्तों का सान्निध्य ढूंढने के बजाय कभी-कभी पेरेंट्स की खुशी के लिए रिश्तेदारों से भी मुलाकात कर लेनी चाहिए।
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दोस्त जरूरी या फिर रिश्तेदार?
- दोनों में से किसी एक को चुनना बहुत ही कठिन फैसला होता है। जहां पेरेंट्स के लिए उनके रिश्तेदार महत्वपूर्ण होते हैं, वहीं युवा बच्चों को दोस्ती ही अधिक समझ आती है। एक असर उम्र का है और दूसरा बदलती लाइफस्टाइल का। जानें इसकी कुछ वजहें।
- बच्चों को ज़्यादा समय न दे पाने पर वे दोस्तों के करीब होने लगते हैं। फिर किसी रिश्तेदारी में जाने को वे अपनी मजबूरी समझने लगते हैं।
- रिश्तेदारों से बचपन से कम संपर्क होने पर वे उनसे कटने लगते हैं। ऐसे में अचानक से उनके घर या किसी समारोह में जाने की बातें सुनकर वे हिचकिचाते हैं।
- रिश्तेदारी में हमउम्र कज़ंस न होने पर किसी के घर जाने पर बच्चों का मन कम लगता है और वे उस समय को दोस्तों के साथ व्यतीत करना बेहतर मानने लगते हैं।

- उन्हें रिश्तेदारों के बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्नों से कोफ्त महसूस होने लगती है। हर बार मिलने पर एक ही तरह की बात होने से वे ऊबने लगते हैं। वहीं दोस्तों से वे अपने मनपसंद किसी भी टॉपिक पर विस्तृत चर्चा कर पाते हैं।
- दोस्ती में उन्हें अपने मन की बातें करने की आज़ादी मिलती है। वहां यह टेंशन नहीं होती है कि कोई बात शेयर करने पर घरवालों को भनक लग सकती है, जबकि रिश्तेदारों से कोई बात शेयर करने पर कभी-कभी वह इधर से उधर भी हो जाती है।
- कई बार बच्चे अपने ज़माने और उनके ज़माने के अंतर की बातों से भी विचलित हो जाते हैं। बदलाव तो निरंतर होते हैं, उसके लिए आज के बच्चों को मिल रहीं सुविधाओं या कल की असुविधाओं को कोसने से कुछ ठीक नहीं होगा।
बच्चों को सिखाएं ये बात
समय के साथ कुछ बच्चों के मन में रिश्तेदारों की नकारात्मक छवि बनने लगती है और वे उनसे दूर होने के बहाने ढूंढने लगते हैं। ऐसे में पेरेंट्स की नैतिक जि़म्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को रिश्तों के बीच सही संतुलन करना सिखाएं और उनके मन से हर तरह की दुर्भावनाओं को हटाने की कोशिश करें। इससे न सिर्फ वे सबकी इज़्ज़त करना सीखेंगे बल्कि सही और गलत के बीच के फर्क को भी समझेंगे। बच्चों को भी समझना चाहिए कि हर परिस्थिति में दोस्तों का साथ ही सही नहीं होता है, उनसे आप हर मसले पर बातें तो कर सकते हैं पर हमउम्र होने के कारण वे आपको वह सही सलाह नहीं दे सकेंगे जो सिर्फ बड़े ही दे सकते हैं।
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