गर्भावस्था एवं प्रसव के दौरान होम्योपैथिक दवाओं के इस्तेमाल को लेकर आमतौर पर कई सवाल उठते हैं। क्या ये दवाएं सचमुच कारगर हैं, ये किस तरह काम करती हैं और गर्भावस्था के दौरान इनके इस्तेमाल से कोई दुष्प्रभाव तो नहीं होगा? ये सारे प्रश्न लोगों के दिमाग में आते हैं। चूंकि होम्योपैथिक दवाओं का सेफ्टी इंडेक्स उत्कृष्ट है, इसलिए इनमें नुकसान की आशंका नहीं होती है। यह एक नॉन-टॉक्सिक उपचार माध्यम है। यदि इस चिकित्सा पद्धति को सही समय पर कुशल चिकित्सक की मदद से चुना जाए तो बेहतर नतीजे देखने को मिलते हैं। लगभग दो सौ वर्षों से प्रेग्नेंसी और डिलिवरी के दौरान होम्योपैथिक दवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है।
प्रसव पीड़ा में प्रभाव
प्रसव पीड़ा प्राकृतिक प्रक्रिया है। गर्भ में भ्रूण परिपक्व होता है तो उसके संसार में आने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। आमतौर पर नौ महीने पूरे होने के बाद शिशु का जन्म होता है। लेकिन कुछ मामलों में परिपक्वता की अवधि अलग-अलग हो सकती है। वंशानुगत स्थितियों के अलावा पर्यावरण संबंधी बदलाव भी इस अवधि को घटा-बढ़ा सकते हैं। हेल्थ प्रोफेशनल्स इन बातों के आधार पर ही उपचार प्रक्रिया का चुनाव करते हैं।
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लेबर पेन कब शुरू होगा और इसकी अवधि कितनी रहेगी, इसे लेकर चिकित्सा विज्ञान बहुत स्पष्ट नहीं है। भ्रूण कितने महीने में पूरी तरह विकसित होगा और कब गर्भ से बाहर निकलेगा, इसका सटीक आकलन डॉक्टर्स के पास नहीं है। अनुमान के आधार पर ही इसे तय किया जाता है। इसके अलावा इंडक्शन की प्रक्रिया कैसे होती है, इस बारे में भी पूरी जानकारी नहीं है। हालांकि, अब तक जो जानकारियां उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक तंत्रिका तंत्र और हॉर्मोन प्रणाली एक साथ काम करती हैं। इन पर लगातार अध्ययन और शोध जारी हैं। इन अध्ययनों के चलते एक नया डिसिप्लिन भी तैयार हो गया है, जिसे साइको-न्यूरो इम्यूनोलॉजी (पीएनआइ) के नाम से जाना जाता है।
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स्थिति और उपचार
प्रसव पीड़ा के उपचार में डॉक्टर अमूमन दो बातों को ध्यान में रखते है। पहला यह कि कौन सी वजह प्रेग्नेंट स्त्री व उसके बच्चे के लिए भय का कारण हो सकती है और स्त्रियां प्रसव प्रक्रिया से क्यों घबराती हैं? इसे सही ढंग से समझने के बाद ही उपचार प्रक्रिया शुरू होती है। दूसरा पहलू होता है शिशु की अवस्था समझना। यह प्रसव उत्प्रेरण का एक अन्य तरीका भी है। यदि शिशु पैर की तर$फ से जन्म लेने की स्थिति में है तो इसके लिए भी होम्योपैथी उपचार कारगर होता है। इस उपचार से गर्भाशय पर दबाव बनता है।
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आमतौर पर प्रसव पीड़ा 38 से 40 हफ्ते के बीच शुरू होती है। पीड़ा के बाद गर्भाशय का द्वार खुलने लगता है। प्रसव तभी सुरक्षित होगा, जब गर्भाशय का द्वार समय पर खुलेगा। इसके लिए सिस्टम का गर्भाशय पर दबाव बनाना जरूरी होगा, क्योंकि दबाव के बाद ही लेबर पेन शुरू होता है। कई बार समय पूरा होने के बावजूद स्त्रियों को लेबर पेन नहीं होता। इस स्थिति में यदि होम्योपैथी उपचार शुरू किया जाए तो 24 घंटे में उसका प्रभाव दिखने लगता है। कई मामलों में ऐसा भी देखा गया है कि दवा लेने के पांच मिनट में ही पीड़ा शुरू हो गई। हालांकि सामान्य स्थितियों में दवाओं का असर 24 घंटे बाद शुरू होता है।
कैसे तय होती है खुराक
एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इस प्रक्रिया में डॉक्टर्स दवा की डोज कैसे तय करते हैं। यह ख़्ाुरा$क तीन बातों के आधार पर तय की जाती है। पहला, पोटेंसी- यानी दवा की शक्ति। दूसरा, क्वांटम यानी दवा की मात्रा। तीसरा, दोहराव- यानी दवा किस-किस अंतराल में देनी है। होम्योपैथी में दवा की मात्रा और निरंतरता बहुत उपयोगी है। खुराक के साथ ही मरीज की ग्रहणशीलता भी मायने रखती है। गर्भावस्था या प्रसव पीड़ा शिशु जन्म की एक प्रक्रिया है। यह कोई बीमारी नहीं है, इसलिए कई बार सामान्य खुराक भी इस स्थिति में काफी होती है। लेकिन कुछ मामलों में स्त्री की ग्रहणशीलता और प्रसव के दौरान उसकी अवस्था के आधार पर ही खुराक का निर्धारण किया जाता है।
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