
योग ऋषि स्वामी रामदेव की प्रेरणा और पतंजलि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध कार्य का परिणाम अब अंतर्राष्ट्रीय मंच पर दिख रहा है। हाल ही में पतंजलि की आयुर्वेदिक औषधि Renogrit पर आधारित एक रिसर्च पेपर विश्वप्रसिद्ध साइंटिफिक जर्नल Scientific Reports (Nature Portfolio) में प्रकाशित हुआ है। यही नहीं, यह रिसर्च 2024 के टॉप 100 शोध पत्रों में भी शामिल किया गया है।
Renogrit एक हर्बल फॉर्मुलेशन है, जिसे खासतौर पर किडनी से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए तैयार किया गया है। रिसर्च में इसे कैंसर की दवा Cisplatin से होने वाले किडनी डैमेज को सुधारने में प्रभावी पाया गया है। Cisplatin एक एंटी-कैंसर दवा है, लेकिन इसके साइड इफेक्ट्स में किडनी को नुकसान पहुंचना एक आम बात है। Renogrit ने इन नुकसानों को कम करने, सूजन और ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस को घटाने और कोशिकाओं को फिर से सक्रिय करने में पॉजिटिव रिजल्ट दिए हैं। खास बात यह है कि यह अध्ययन न सिर्फ लैब में तैयार की गई किडनी सेल्स पर किया गया, बल्कि C. elegans नामक जीवित मॉडल पर भी इसकी पुष्टि की गई। दोनों ही प्रयोगों में यह हर्बल दवा कारगर साबित हुई।
आचार्य बालकृष्ण ने इस उपलब्धि को आयुर्वेद की वैज्ञानिक मान्यता के लिए एक "मील का पत्थर" बताया। उन्होंने कहा, “जब पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के मानकों पर परखा जाता है, तब ऐसे क्रांतिकारी परिणाम सामने आते हैं। Renogrit इसकी एक बेहतरीन मिसाल है।”
Renogrit पर हुआ यह अध्ययन यह भी दर्शाता है कि किस तरह एक हर्बल फॉर्मूला बिना किसी साइड इफेक्ट के गंभीर बीमारियों से लड़ने में मददगार साबित हो सकता है। आमतौर पर कैंसर के इलाज के दौरान मरीजों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें किडनी डैमेज एक गंभीर समस्या होती है। ऐसे में अगर कोई आयुर्वेदिक उपाय शरीर पर अतिरिक्त भार डाले बिना राहत दे सके, तो यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।
यह रिसर्च पेपर अब तक 2,500 से ज्यादा बार डाउनलोड किया जा चुका है, जो यह दर्शाता है कि दुनिया भर में अब आयुर्वेदिक इलाज को लेकर वैज्ञानिक रुचि तेजी से बढ़ रही है। Renogrit जैसी खोजें दिखाती हैं कि आयुर्वेद केवल पारंपरिक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि भविष्य का साइंटिफिक समाधान भी बन सकता है – खासतौर पर जब उसे रिसर्च और डेटा के साथ पेश किया जाए।
पूरा रिसर्च पेपर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://www.nature.com/articles/s41598-024-69797-3
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