पार्किंसंस एक मानसिक रोग है। यह रोग जब मानव शरीर में प्रवेश करता है ऐसा रोग है जो व्यक्ति को कई तरह की बीमारियों से घेर लेता है। पार्किंसंस रोग केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का एक ऐसा रोग है जिसमें रोगी के शरीर के अंग कंपन करते रहते हैं। मानव शरीर में पार्किंसन का आरम्भ बहुत धीरे धीरे होता है। डॉक्टरों के अनुसार ज्यादातर 50 से ज्यादा आयु वाले व्यक्ति में इसका होने का खतरा है।
डॉक्टरों का कहना है कि इसका प्रमुख कारण ज्यादा तनाव और नशे की लत होना है। पार्किंसंस रोग एक स्वस्थ मनुष्य की चाल को बदल देता है। इसका इलाज संभव है लेकिन समय पर पहचान करना जरूरी है। आधुनिक अध्ययनों के अनुसार पार्किन्संस बीमारी न सिर्फ बुजुर्गों में होती है बल्कि अब इसकी चपेट में प्रौढ़ व्यक्ति (मिडिल एज्ड पर्सन) भी आने लगे हैं। इस रोग को कैसे किया जा सकता है नियंत्रित...
पुरुषों को है ज्यादा खतरा
महिलाओं की तुलना में पुरुषों में पार्किन्संस रोग के मामले अब कहीं ज्यादा सामने आ रहे हैं। ‘जर्नल ऑफ न्यूरोलॉजी, न्यूरोसर्जरी एंड साइकिएट्री’ के अनुसार महिलाओं की तुलना में पुरुषों को इस बीमारी से ग्रस्त होने की आशंका 1.5 गुना ज्यादा होती है। कुछ अध्ययन यह दर्शाते हैं कि महिलाओं में इस बीमारी के कम होने का कारण एस्ट्रोजन हार्मोन का स्रावित होना है। इसी वजह से महिलाओं में यह बीमारी कम होती है।
ऐसे पहचानें
- पार्किन्संस दिमाग से संबंधित बीमारी है। इसके लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होते हैं, जिसे लोग शुरुआत में नजरअंदाज कर देते हैं...
- हाथ, बांह, टांगों, मुंह और चेहरे पर कंपन होना।
- जोड़ों में कठोरता आना।
- विभिन्न शारीरिक व मानसिक गतिविधियों में धीमापन आना।
- शरीर व मस्तिष्क के मध्य तालमेल बिगड़ना।
- रोग की गंभीर यानी एडवांस स्टेज में पीड़ित व्यक्ति को चलने-फिरने, बात करने और दूसरे छोटे-छोटे काम करने में दिक्कत महसूस होती है।
डायग्नोसिस
इस रोग का जांचों के आधार पर पता लगा पाना काफी मुश्किल है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पार्किन्संस से संबंधित कोई भी ऐसा टेस्ट नहीं है, जिसके होने के बाद यह पता चल सके कि अमुक शख्स इस रोग से ग्रस्त है। डॉक्टर लक्षणों को देखकर ही इस रोग के बारे में पता लगाते हैं।
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क्या है इलाज
सच तो यह है कि पार्किन्संस बीमारी का अभी तक कोई एक सुनिश्चित या विशिष्ट इलाज नहीं है, लेकिन इसके लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है। दवाओं से पार्किन्संस बीमारी के लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है। कम से कम सात से आठ सालों तक मरीज दवाओं पर जिंदा रह सकता है, लेकिन सात से आठ सालों बाद दवाओं का भी असर कम होने लगता है। इसके बाद डीबीएस तकनीक की मदद लेनी पड़ती है।
डीप ब्रेन स्टीमुलेशन
इस तकनीक को संक्षेप में ‘डीबीएस’ कहते हैं, जो पार्किन्संस के इलाज का बेहतर विकल्प है। इस तकनीक के अंतर्गत दिमाग के कुछ भागों को ‘लीड’ के द्वारा तरंगित किया जाता है। ये लीड पेसमेकर से जुड़ी होती है जो लगातार दिमाग की कोशिकाओं को तरंगित करती है। दिमाग की इन कोशिकाओं को सुचारु रूप से सक्रिय (स्टीमुलेट) करने से वे शरीर के अंगों को कंट्रोल करने में मदद करती हैं। जिन रोगियों पर विभिन्न दवाओं का असर कम होने लगता है या फिर दवाओं से उनमें साइड इफेक्ट उत्पन्न होने लगते हैं, तो इस स्थिति में ऐसे रोगियों के लिए डीबीएस थेरेपी कारगर है।
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