अक्सर स्कूली शिक्षा बच्चे अपने माता पिता के साथ रहकर ही पूरा करते हैं। स्कूली पढ़ाई के दौरान माता पिता अपने बच्चों को स्कूल, ट्यूशन छोड़ने के साथ ही दिनभर उनके पीछे लगे रहते हैं। लेकिन जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो अपनी आगे की पढ़ाई को पूरा करने के लिए उसे अक्सर दूसरे शहर या विदेश में जाना पड़ता है। बच्चों के घर से जाते ही घर सूना हो जाता है। यह सूनापन कई बार पेरेंट्स के लिए इतना खतरनाक हो जाता है कि वह गंभीर मानसिक बीमारी का शिकार हो जाते हैं। आज छात्रों के सामने अच्छे करियर और उच्च शिक्षा के लिए कई विकल्प मौज़ूद हैं। इसी वजह से स्कूल की पढ़ाई पूरी होते ही अधिकतर छात्र अपनी रुचि से जुड़े क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए अपने घर से दूर चले जाते हैं। एक ओर जहां पेरेंट्स को बच्चों की कामयाबी की खुशी होती है, वहीं दूसरी ओर उन्हें अकेलापन खटकने लगता है। आज हम आपको बता रहे हैं कि ऐसा क्यों होता है और इससे बचाव के तरीके क्या हैं।
घर का सूनापन
ऐसे में पेरेंट्स के लिए बच्चों के साथ दूरी को स्वीकारना मुश्किल हो जाता है। सुबह स्कूल भेजने की तैयारी से लेकर रात के डिनर तक हर मां दिन-रात बच्चों की देखभाल में व्यस्त रहती है। वे क्या खाएंगे, उनके कपड़े धुले हैं या नहीं, उन्हें कोचिंग क्लासेज़ के लिए कितने बजे जाना है? ऐसे छोटे-छोटे सवालों से घिरी मां दिन-रात बच्चों की फिक्र में ही डूबी रहती है। जब वे उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर निकलते हैं तो सारी चहल-पहल थम सी जाती है। मां को अचानक ऐसा लगता है कि अब उसके पास कोई काम नहीं है। आमतौर पर पिता खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार नहीं करते पर घर का सूनापन उन्हें भी रास नहीं आता। पहले सुबह-शाम की धमाचौकड़ी, प्यार भरी नोकझोंक और थोड़ी सी डांट-फटकार से हमेशा माहौल गुलज़ार रहता था। अब घर के साथ माता-पिता के दिलों पर भी गहरा सन्नाटा छा जाता है। मांएं इस बदलाव से सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं। जिस तरह कुछ समय बाद पक्षियों के नन्हे बच्चे अपना घोंसला छोड़ कर उड़ जाते हैं, वही स्थिति हमारे घरों की भी होती है।
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ज़रूरी है मानसिक तैयारी
बच्चों के बाहर जाने के बाद माता-पिता जिस उदासी भरी मनोदशा से ग्रस्त होते हैं, मनोविज्ञान की भाषा में उसे 'एंप्टी नेस्ट सिंड्रोम' कहा जाता है। अपने जीवन में अचानक आने वाले इस खालीपन की वजह से कई बार मांएं डिप्रेशन की शिकार हो जाती हैं। जब बच्चे उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर चले जाते हैं तो उन्हें अपने जीवन का कोई उद्देश्य नज़र नहीं आता। हालांकि स्त्रियां समय के साथ आने वाले इस बदलाव के लिए पहले से ही मानसिक रूप से तैयार रहती हैं।
अब खुद के लिए निकालें वक्त
लगभग 18-19 वर्षों तक बच्चों की परवरिश में दिन-रात व्यस्त रहने के कारण स्त्रियों के पास अपने लिए ज़रा भी समय नहीं होता। पढ़ाई, कोचिंग क्लासेज़ और बच्चों की हर सुविधा का ध्यान रखने वाली मांं को अपने लिए थोड़ा भी वक्त नहीं निकाल पाती। लखनऊ की होममेकर रेहाना खान कहती हैं, 'मेरे दोनों बेटे उच्च शिक्षा के लिए देश से बाहर जा चुके हैं। उनके जाने के बाद अचानक बहुत खालीपन महसूस होने लगा। किसी भी काम में मेरा मन नहीं लगता था। अगर उनका कॉल आने में ज़रा भी देर हो जाए तो मेरी घबराहट बढ़ जाती थी। इसलिए रोज़ाना सुबह-शाम मैं खुद ही उन्हें कॉल कर लेती थी। कई बार तो बातचीत के दौरान मैं रो पड़ती थी। मेरी उदासी देखकर वे भी परेशान हो जाते। ऐसे में उन्होंने ही मुझे रुचि से जुड़े कार्यों में व्यस्त रहने की सलाह दी। अब मैं अपनी पुरानी हॉबी सिलाई-कढ़ाई की तरफ रुख कर चुकी हूं। अब मेरा खाली समय ऐसी क्रिएटिव ऐक्टिविटीज़ के साथ मज़े में कटता है। विडियो कॉलिंग और वॉट्सएप के ज़रिये बच्चों से जुड़ी रहती हूं। सच कहूं तो घरेलू जि़म्मेदारियों की वजह से पहले अपने लिए ज़रा भी फुर्सत नहीं मिलती थी पर अब मैं सुकून भरे इस दौर को जी भर कर एंजॉय करने लगी हूं।
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पति पत्नी दें एक दूसरे को क्वॉलिटी टाइम
नई गृहस्थी की शुरुआत में अधिकतर दंपती बच्चों की परवरिश और अन्य जि़म्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं। इसलिए वे चाह कर भी एक-दूसरे को समय नहीं दे पाते पर जब बच्चे अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त हो जाते हैं तो यही वह दौर होता है, जब पति-पत्नी एक-दूसरे को क्वॉलिटी टाइम दे पाते हैं। रायपुर की सुशीला कंवल कहती हैं, 'हमारे जीवन का शुरुआती दौर काफी मुश्किलों से भरा था। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी, इसलिए अपनी ज़रूरतों में कटौती करके बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे जुटाए। उस दौरान हमें अपने बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं होती थी। जब मेरे छोटे बेटे ने मेडिकल कॉलेज का रुख किया तो हमें उदासी ज़रूर महसूस हुई लेकिन मुझे मालूम था कि बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए यह बहुत ज़रूरी है।
फोन के ज़रिये उसके साथ संपर्क बना रहता है। अब बच्चे इस काबिल हो गए हैं कि वे अपना खयाल खुद रख सकें। इसलिए अब हम दोनों एक-दूसरे के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताते हैं। हम साथ घूमने जाते हैं और अपनी रुचि से जुड़े कार्यों में व्यस्त रहते हैं। रोज़ाना सुबह मॉर्निंग वॉक और योगाभ्यास करते हैं। पर्याप्त समय होने के कारण अब हम अपनी सेहत का पूरा खयाल रखते हैं। हर इंसान के जीवन में एक ऐसा दौर ज़रूर आता है, जब बच्चे अपने सपनों के पंख लगाकर बाहर की दुनिया में ऊंची उड़ान भरने लगते हैं। ऐसे में उनके लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करने वाले माता-पिता को भी अपनी खुशियों के लिए जीना चाहिए, तभी घर से दूर रहने वाले बच्चे भी तनावमुक्त रहेंगे।
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