आयुर्वेद इस दुनिया के महानतम ज्ञान में से एक है। अक्सर लोग आयुर्वेद को चिकित्सा पद्धति मानने की भूल कर जाते हैं, जबकि आयुर्वेद वास्तव में निरोग जीवनशैली का अभ्यास है। यही कारण है कि आयुर्वेद में सिर्फ प्राकृतिक उपचार के तरीके और जड़ी-बूटियों का ही ज्ञान नहीं बताया गया है, बल्कि एक स्वस्थ, संतुलित जीवन जीने के तरीके भी बताए गए हैं। आयुर्वेद में शिशुओं के पालन-पोषण के संबंध में भी कई बातें बताई गई हैं, जिनका आज तक भारतीय समाज में प्रयोग किया जाता है। हालांकि शहरों में और नई पीढ़ी के माता-पिताओं में अब आयुर्वेद के सिद्धांतों को लेकर थोड़ा संकोच देखा जाता है, मगर कुछ सिद्धांत और नियम आज भी प्रभावी हैं और गांवों में महिलाओं शिशुओं की देखभाल में इन नियमों को अपनाती हैं। आइए आपको बताते हैं नवजात शिशु की देखभाल के लिए ऐसे ही 5 नियम।
आनंद का उत्सव
भारतीय परंपरा में शिशु के होने पर आनंद और उत्सव मनाने की परंपरा वास्तव में आयुर्वेद से निकली है। आयुर्वेद के अनुसार शिशु के जन्म के बाद आनंद और उत्सव मनाने से शिशु परिवार के सदस्यों, अपने मां-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी आदि से घुलता-मिलता है और उसके अवचेतन में इसकी जो स्मृतियां रह जाती हैं, वो जीवनभर उसे परिवार और समाज के प्रति सकारात्मक रहने की प्रेरणा देती हैं। शिशु के जन्म के बाद पहले स्नान को छठी संस्कार के रूप में, पहली बार ठोस आहार के सेवन को अन्नप्राशन संस्कार, पहली बार बाल घोटने को मुंडन संस्कार आदि से जोड़कर इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
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तेल से शिशु की मालिश करना
भारतीय महिलाएं आज भी गांवों में बच्चों की देसी चीजों के तेल से मसाज करती हैं। दुनिया के और भी कई देशों में तेल की मसाज बच्चों के लिए फायदेमंद मानी जाती है। आमतौर पर बच्चों की मसाज के लिए नारियल का तेल, तिल का तेल, सरसों का तेल और बादाम का तेल फायदेमंद माना जाता है। सरसों का तेल गर्म होता है इसलिए गर्मियों में इस तेल से बच्चों की मसाज करते समय थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। मसाज करने से शिशु के शरीर में ब्लड सर्कुलेशन अच्छा बना रहता है और उसके अंगों को पोषण मिलता है, जिससे उसके शरीर का भली-भांति विकास होता है। इसके अलावा मसाज करने से निम्न फायदे मिलते हैं-
- शिशु की हड्डियां मजबूत होती हैं।
- शिशु के शरीर के अतिरिक्त बाल निकल जाते हैं।
- शिशु का रंग साफ होता है।
- शिशु को नींद अच्छी आती है।
- शिशु की इम्यूनिटी मजबूत होती है।
- शरीर में फ्लेक्सिबिलिटी बढ़ती है।
त्वचा से त्वचा का संपर्क
पश्चिमी सभ्यता में कुछ महीने के बाद ही शिशु को अलग बिस्तर पर सुलाने की परंपरा है। वहां माना जाता है कि इससे शिशु आत्मनिर्भर बनता है। जबकि भारतीय समाज में 3-4 साल की उम्र तक शिशु को मां-बाप के पास ही सुलाने की परंपरा रही है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि त्वचा से त्वचा का संपर्क शिशुओं से फायदेमंद होता है। शिशु को गोद में उठाने, मसाज करने, अपने पास सुलाने आदि से बच्चे के सभी शारीरिक संवेदी अंग ठीक से काम करते हैं। शरीर की गर्माहट से शिशु को सुरक्षा का एहसास होता है और उसे नींद बेहतर आती है।
हाथ से बना खाना खिलाने की परंपरा
पश्चिमी सभ्यता में शिशु को बचपन से ही पैकेटबंद दूध पाउडर, पैकेटबंद सीरियल पाउडर, बेबी फूड्स आदि खिलाया जाता है। जबकि भारतीय समाज में शिशु को उबले हुए आलू, दाल का पानी, साबू दाना की खिचड़ी, मेवों की खीर, फलों का पल्प, खिचड़ी, दलिया आदि खिलाने की परंपरा है। ये आहार प्राकृतिक होने के कारण ज्यादा हेल्दी हैं और घर पर बने होने के कारण केमिकल फ्री होते हैं। जबकि पैकेटबंद बेबी फूड्स में हानिकारक तत्व मिले होने की पुष्टि कई बार हो चुकी है।
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स्तनपान कराना
आयुर्वेद में शिशु के लिए स्तनपान का बहुत विशेष महत्व बताया गया है। आयुर्वेद के अनुसार मां के दूध में कायाकल्प के गुण होते हैं। इसका अर्थ है कि शिशु के लिए ये दूध इतना फायदेमंद होता है कि उसका शरीर पूरी तरह बदल जाता है। ये दूध शिशु की रोगों से रक्षा करता है, उनमें प्रतिरक्षा क्षमता पैदा करता है, उन्हें इंफेक्शन से बचाता है, शरीर में पोषक तत्वों की कमी पूरी करता है और शिशु के शरीर को समुचित विकास में मदद करता है।
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