बचपन से ही हम लगातार पड़ते दबाव के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को लेकर चर्चा करते रहे हैं। इसके नकारात्मक पहलु को देखें तो हमारे सामने दोस्तों के दबाव में आकर किसी व्यक्ति के नशे का आदी बनने की तस्वीर सामने आती है। वहीं कोई इसी दबाव या सलाह का मानकर जीवन का बड़ा हिस्सा सामाजिक सुधार व अन्य उपयोगी काम करने में लगाने लगता है। यानी विशिष्ट परिस्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव के सकारात्मक या नकारात्मक होने पर काफी कुछ निर्भर करता है।
लेकिन, यहीं से एक बड़ा सवाल सामने आता है। आखिर दूसरे व्यक्तियों के फैसलों पर लोगों पर आपकी सोच से ज्यादा पड़ता है आपका असर कितना प्रभाव पड़ता है। क्या आपको इस बात का अंदाजा है कि आप दूसरों पर किस हद तक प्रभाव डालने में सक्षम हैं।
इस अहम मुद्दे पर वेनेसा बोन्हस (Vanessa Bohns), महादी रोग्हानिजेड (Mahdi Roghanizad) और एमी एक्सू (Amy Xu) ने पर्सनेलिटी एण्ड सोशल साइकोलॉजी के मार्च 2014 के अंक में रोचक पेपर प्रस्तुत किया।
इस पेपर में नकारात्मक चीजें करने के लिए पड़ने वाले गहरे और बुरे दबाव के बारे में बात की गयी। एक शोध में कॉलेज छात्रों को प्रतिभागियों के रूप में शामिल किया गया। इसमें उन्हें अन्य छात्रों से साफ तौर पर एक सफेद झूठ बोलने को कहा गया। इन छात्रों ने यूनिवर्सिटी के अन्य छात्रों पर दबाव बनाया कि वे इस झूठे पत्र पर हस्ताक्षर कर दें, जिस पर यह लिखा है कि प्रतिभागियों ने इन छात्रों के लिए यूनिवर्सिटी में एक क्लास का आयोजन किया। हालांकि, प्रतिभागियों ने न तो ऐसा किया था और वे न ही ऐसा करने वाले थे। वास्तव में उनकी इस काम को करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी।
इस काम को शुरू करने से पहले प्रतिभागियों ने प्रतिभाओं को तय किया कि उन्हें कम से कम तीन छात्रों से हस्ताक्षर करवाने हैं। उन्होंने अंदाजा लगाया कि इसके लिए उन्हें कम से कम कितने लोगों से बात करनी होगी। उन्होंने इस बात पर भी चर्चा की कि आखिर कितने लोग बड़ी सहजता से इस झूठ का साथ देने से इनकार कर देंगे। इसके बाद वे बाहर गए और उन्होंने इस सफेद झूठ को सामाजिक तौर जांचा।
प्रतिभागियों ने अंदाजा लगाया कि तीन अनुमोदनों के लिए उन्हें कम से कम 8.5 लोगों से बात करनी होगी। हालांकि, उन्हें केवल 4.4 लोगों बात करने के बाद ही तीन हस्ताक्षर मिल गए। यूं तो प्रतिभागियों ने सोचा था कि लोग आसानी से ना कह देंगे, लेकिन वास्तव में उन्हें अनुमान से कम समय में ही तीन आवश्यक हस्ताक्षर मिल गए।
इस शोध के दूसरे हिस्से में प्रतिभागियों से कहा गया कि वे लोगों को लाइब्रेरी की किताब में पेन से कुछ लिखें। इस बार भी नतीजे में ज्यादा बदलाव नहीं आया। प्रतिभागियों को अनुमान से आधे लोगों से पूछने पर ही तीन लोगों ने हस्ताक्षर कर दिये।
दो अन्य शोधों में इस बात पर चर्चा की गयी कि आखिर ऐसा प्रभाव क्यों पैदा होता है। इन शोधों में लोगों को कुछ शब्दचित्र दिखाये गए। इन शब्दचित्रों में कुछ अनैतिक बातें कही गईं थीं। इसमें बताया गया था कि किसी का फेसबुक अकाउंट गलती से खुला रहने पर कुछ लोग उनके निजी संदेश पढ़ने लगते हैं। वहीं, मैच देखने या किसी अन्य काम के लिए ऑफिस से बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी लेते हैं।
कुछ लोगों ने परिस्थितियों का स्वयं आकलन कर अपनी गतिविधियों का निर्धारण किया। वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने अपने कथित अनुभव के आधार पर दूसरे लोगों को विशिष्ट परिस्थितियों में नैतिक या अनैतिक कार्य करने की सलाह दी। इसके बाद पूछा गया कि नैतिक कार्य करते समय प्रतिभागी कितने सहज थे।
सलाहकार की भूमिका में बैठे प्रतिभागी ने यह नहीं सोचा था कि उनकी सलाह का दूसरों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने सोचा था कि लोग अपने आप ही नैतिक कामों को अधिक तरजीह देंगे। उनका मानना था कि उनकी सलाह चाहे जैसा काम करने की हो, लेकिन लोगों की इच्छा सही काम करने की अधिक होगी।
वास्तव में, जब प्रतिभागियों को जब अनैतिक काम करने की सलाह दी गयी, तो वे नैतिक काम करने की सलाह की अपेक्षा, सही काम करने में कम सहज थे। इससे यह साबित होता है कि लोग गलत काम करने की सलाह को ज्यादा मान रहे थे।
बोहन्स और उनके साथियों के अन्य शोधों में भी मानवीय स्वभाव से जूड़े इसी प्रकार के नतीजे सामने आए।
इन सब शोधों को एक साथ देखा जाए, तो एक बात तो साफ हो जाती है। लोग आसानी से इनकार करने में काफी परेशानी होती है। ऐसा उन पर पड़ रहे सामाजिक दबाव के कारण होता है। इस दबाव का हमारे व्यवहार पर काफी गहरा असर पड़ता है। कई बार हम इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन दूसरे लोगों पर हमारी राय और व्यवहार का हमारी सोच से ज्यादा गहरा प्रभाव पड़ता है।
तो, हमें लोगों को सही काम करने की सलाह देनी चाहिये। यदि आप दूसरों और समाज की मदद करना चाहते हैं, तो कभी भी किसी को गलत काम करने की सलाह न दें।