आरुष के पास दो विकल्प थे। पहला उसे आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून जाना था। दूसरा दिल्ली में रहकर मिली नौकरी को स्वीकार करना था। लेकिन आरुष इससे जुड़ा कोई भी फैसला करने में असमर्थ रहा। उसे समझ ही नहीं आया कि उसे क्या करना चाहिए। नतीजतन दोनों ही विकल्प एक-एक कर उसके हाथ से छूट गए।
यह कोई अकेले आरुष की स्थिति नहीं है। हम अकसर असमंजस में फंसकर कोई फैसला नहीं ले पाते। अटकन महसूस करते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि हमारे जीवन में इस तरह का मोड़ क्यों आता है? आखिर क्यों हम इस तरह खुद को अटका हुआ महसूस करते हैं? जब गंभीर फैसले लेने हो तो कदम क्यों पीछे चले जाते हैं। ऐसी स्थिति हम क्यों दूसरों पर निर्भर होना पसंद करते हैं? चलिए हम बताते हैं।
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खोने व हारने से डरते हैं हम
फैसला छोटा हो या बड़ा। हमारा हर फैसला हमारे जीवन को प्रभावित करता है। फिर चाहे वह कॅरिअर सम्बंधी हो या विवाह सम्बंधी। किस स्कूल में जाना है से लेकर मिली नौकरी, मौजूदा नौकरी से बेहतर है या नहीं। इस तरह के सैकड़ों फैसले हमें करने होते हैं। जो लोग आत्मविश्वास से भरे होते हैं, उन्हें इस तरह के फैसलों में अटकन महसूस नहीं होती। अटकन उन्हें होती है जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है।
दरअसल हम अकसर कुछ खोने से या हारने से डरते हैं। हमें हर जगह का लोभ होता है, हर जगह की चाह होती है। जबकि हमें इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए कि जीवन के हर मोड़ पर विकल्प होते हैं और उन्हीं में से बेहतर को हमें चुनना होता है। कई बार लिए हुए फैसले के चलते कुछ खोना भी पड़ सकता है। कुछ हारों का सामना भी करना होता है। आखिर जीवन इसी का नाम है। ऐसे में भला कुछ खोने से या हारने से डर कैसा। जरूरी है कि मजबूत इरादा रखें और विकल्पों में बेहतर विकल्प को चुनने में सामथ्र्य बनें।
कमज़ोर विकास
इस दौड़ भाग भरी जिंदगी में कमज़ोरी की जगह ही नहीं बनी है। बावजूद इसके सबमें कुछ न कुछ कमज़ोरियां हैं, खामियां हैं। हम अपनी कमज़ोरियों से भाग नहीं सकते। ज़रूरी यह है कि हम उसका सामना करें। अब ज़रा सोचें कि आपको अपने लिए भावुक या व्यवहारिक पार्टनर में किसी एक को चुनना है तो आप क्या करेंगे? ऐसी स्थिति में अकसर लोग एक ही व्यक्ति में पूरा पैकेज तलाशने की कोशिश करते हैं। लेकिन माफ कीजिएगा! कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। पूर्णता की हमारी चाहत हमें अकसर कमज़ोर विकास की ओर धकेल देती है। परिणामस्वरूप हम इस तरह के फैसले लेने में न सिर्फ असमंजस में पड़ जाते हैं बल्कि दूसरे विकल्प को खोने से आहत भी महसूस करते हैं।
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खोए हुए के लिए अफसोस
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि जो चीज़ हमें नहीं मिलती, वही बेहतर लगती है। ...और चूंकि वह चीज़ नहीं मिली है, उसके लिए अफसोस के गर्त में चले जाते हैं। मिली हुई चीज़ की कद्र नहीं होती। हकीकत यह है जि़ंदगी में हुए बदलावों को हम आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। जबकि बदलाव हमेशा सकारात्मक होते हैं। कहा भी जाता है कि परिवर्तन एकमात्र स्थिर है। बाकी सब अस्थिर होता है। बहरहाल जीवन में हुए बदलावों के चलते हम फैसले लेने में हिचक महसूस करने लगते हैं। अपना मूल्यांकन करने लगते हैं। जबकि अपना आलोचक होना नकारात्मकता की निशानी है।