पार्किंसंस डिजीज एक तरह का क्रोनिक और प्रोग्रेसिव मूवमेंट डिसऑर्डर है, जिससे तमाम लोग प्रभावित हैं। मौजूदा समय में इसका कोई इलाज नही है। इनके लक्षणों की भी सही जानकारी किसी विशेषज्ञ के पास नही होती है। शुरूआती स्टेज में इसका लक्षण एक बार उभरने के बाद यह धीरे-धीरे खतरनाक हो जाता है। जो कि मस्तिष्क में मौजूद वाइटल नर्व सेल को पूरी तरह से नष्ट कर देता है। यह शुरूआती चरण में न्यूरोंस को प्रभावित करते हैं। इस बीमारी को लेकर वैज्ञानिकों ने एक अच्छी खोज की है।
पार्किंसंस डिजीज का प्राइमरी स्टेज में पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक टेस्ट विकसित किया है, जिसके माध्यम से इस घातक बीमारी के बारे में आसानी से पता लगाया जा सकता है। पार्किंसंस की पहचान करने के लिए एक नई तकनीक विकसित है, जिसमें रोगियों की रीड़ की हड्डी के तरल पदार्थों में पार्किंसंस मॉलीक्यूल के होने की जांच की जाती है। इस शोध के दौरान वैज्ञानिकों ने लगभग 20 पार्किंसंस डिजीज के मरीजों का सैंपल लिया, इसके साथ ही तीन अन्य व्यक्तियों के सैंपल लिए गए जिनमें इस बीमारी की होने की आशंका थी।
यूनिवर्सिटी ऑफ इडेनबर्ग, स्कॉटलैंड में हुए रिसर्च के मुताबिक, इस नए टेस्ट में एक नए तरीके के प्रोटीन मॉलीक्यूल की खोज की जाती है जो पार्किंसंस और डिमेंसिया के मरीजों में पाई जाती है। इस प्रोटीन मॉलीक्यूल का नाम अल्फा साई न्यूक्लीन है जो मनुष्य के मस्तिष्क की कोशिकाओं में थक्के बनाती है जिसे लीवी बॉडीज कहते हैं।
वैज्ञानिकों ने इस टेस्ट तकनीक का 15 स्वस्थ्य व्यक्तियों में किया गया, जिनमें ऐसा कुछ भी नही था। यह टेस्ट किसी भी स्वस्थ्य व्यक्ति में पार्किंसंस डिजीज का पता नही लगा सका। हालांकि रिसर्च की सटीकता को जांचने की और अधिक जरूरत है, लेकिन जांचकर्ताओं का मानना है कि इस तकनीक पार्किंसंस डिजीज को ठीक करने में मदद मिलेगी।
Image Source : nursebuddy.co
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