
मस्तिष्क ज्वर, दिमागी बुखार आदि नामों से मशहूर जापानी इन्सेफेलाइटिस एक जानलेवा बीमारी है। इसका शिकार बच्चे ज्यादा होते हैं। अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर के महीनों में यह अपने जोरों पर होता है। ये बीमारी हर साल इन्ही तीन महीनो में अधिक फैलती है। लोगों में इस बीमारी के प्रति जानकारी की बेहद कमी है जिसके चलते वे इसे अनदेखा करते हैं, जिस कारण उन्हें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। पिछले कुछ सालों में जापानी इन्सेफेलाइटिस ने भारत में खूब कहर मचाया है, हर साल यह देश में हजारों लोगों की मौत का कारण बनता है। इसलिए इसके बारे में सही जानकारी और बचाव बेहद जरूरी है। तो चलिये जानें जापानी इन्सेफेलाइटिस के बारे में और संकल्प करें कि इसे भी पोलियो की तरह खुद के घर और देश से निकाल बाहर करेंगे, ताकि और लोग इसकी बली न चढ़ पाएं।
क्या है जापानी इन्सेफेलाइटिस
सुअर इस बीमारी का मुख्य वाहक होते हैं। सूअर के ही शरीर में इस बीमारी के वायरस पनपते और फलते-फूलते हैं, और फिर मच्छरों द्वारा यह वायरस सुअर से मानव शरीर में पहुंच जाता है। चावल के खेतों में पनपने वाले मच्छर जापानी इन्सेफेलाइटिस वायरस से संक्रमित होते हैं। यह वायरस दरअसल सेंट लुई एलसिफेसिटिस वायरस एंटीजनीक्ली से संबंधित एक फ्लेविवायरस है। जापानी एनसेफेलिटिस के वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं होता है। यह संक्रमित व्यक्ति के छूने आदि से नहीं फैलता। केवल पालतू सूअर और जंगली पक्षी ही जापानी एनसेफेलिटिस वायरस को फैला सकते हैं।
जापानी इन्सेफेलाइटिस का भारत में बढ़ता प्रकोप
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल पांच से छह सौ बच्चे जापानी इन्सेफेलाइटिस के कारण मौत का शिकार बनते हैं, जबकि हकीकत हमेशा की तरह जुदा है। इंसेफेलाइटिस के प्रकोप का अंदाजा इस ही बात से लगाया जा सकता है कि तीन दशकों में इन्सेफेलाइटिस से उत्तरी राज्यों में 50,000 से अधिक जानें जा चुकी हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस बीमारी से लकवाग्रस्त हुए लोगों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रखा जाता है।
नवम्बर 2013 तक अखबारों में छपे आंकड़ों पर एक नजर डालें तो उत्तर प्रदेश के पूर्वी सात जिले गंभीर रूप से इन्सेफेलाइटिस से प्रभावित हुए। उस समय तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार सहित दूसरे राज्यों के 60 जिले इन्सेफेलाइटिस से ज्यादा प्रभावित थे। अकेले गोरखपुर में वर्ष 2005 में जापानी इन्सेफेलाइटिस से करीब 1000 लोगों की जानें गयी थी जिसमे ज्यादातर बच्चे शामिल थे। सरकारी आकंड़ो के मुताबिक, 2012 में इन्सेफेलाइटिस से यूपी और बिहार में 422 बच्चों की मौत हुई थी। गौरतलब है कि देश के 19 राज्यों के 171 जिलों में जापानी इन्सेफेलाइटिस का असर देखा गया। वर्ष 2012 में इन्सेफेलाइटिस से कुल 1,000 जानें गयी थी। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक हर वर्ष लगबग पांच सौ से छह सौ बच्चे इससे मरते हैं जबकि हकीकत में आंकडे इससे कई गुना ज्यादा हैं।
स्वदेशी तकनीक से राष्ट्रीय विषाणु संस्थान (एनआर्इवी), इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और भारत बायोटेक लिमिटेड के वैज्ञानिकों के संयुक्त प्रयास से जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) एक टीका विकसित किया था। 4 अक्टूबर 2013 को इस टीके की शुरूआत की गई। इसके पहले यह टीका चीन से आयत किया जाता था।
जुलाई से दिसम्बर के बीच फैलती है यह बीमारी
जुलाई से दिसम्बर के बीच ज्यदा फैलती है यह बीमारी
सितम्बर और अक्टूबर में इस बीमारी का कहर सबसे ज्यादा होता है। आंकड़ों पर नजर डालें तो जितने लोग इंसेफेलाइटिस से ग्रसित होते हैं, उनमें से केवल 10 प्रतिशत में ही दिमागी बुखार के लक्षण जैसे, झटके आना, बेहोशी और कोमा जैसी स्थिति होती है। और इनमें से तकरीबन 50 से 60 प्रतिशत मरीजों की मौत हो जाती है। बचे हुए मरीजों में से लगभग आधे लकवाग्रस्त हो जाते हैं और उनके आंख और कान ठीक से काम करना बंद कर देते हैं। उन्हें जिंदगीभर दौरे आते हैं और मानसिक अपंगता हो जाती है। इससे सबसे अधिक शिकार 3 से 15 साल के बच्चे होते हैं।
कैसे करें बचाव
इस बीमारी से ब चने के लिए सबसे पहली बात तो यह कि हमें सावधान रहना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि हमारे घरों के आस-पास गन्दा पानी न जमा होने पाए। अपने बच्चों को गंदे पानी के संपर्क में आने से बचाना होगा और साथ ही मच्छरों से भी उनका बचाव करना होगा। कही किसी गड्ढे, कूलर या बुराने बर्तन आदि में पानी एकत्र देखें तो उसे साफ करें या उसमे तुरंत कुछ बूंद मिट्टी का तेल या पेट्रोल डाल दें। ऐसा करने से मच्छरों के लार्वा मर जायेंगे।
साथ ही सरकार को भी इस बीमारी की गंभीरता को देखते हुए टीकाकरण, कीटाणुओं पर काबू, स्वच्छ पीने का पानी, साफ-सफाई, बच्चों को बेहतर खान-पान और प्रभावित होने वाले बच्चों का पुनर्वास आदि योजनाओं को चलाना होगा। यह भी देखा जाए कि इस योजना के तहत स्वास्थ्य, शहरी विकास, ग्रामीण विकास, पेयजल और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय मिलकर काम करें ताकि प्रभावी परिणाम मिल सकें।
इंसेफेलाइटिस के मरीजों को अकसर वेंटीलेटर पर रखने की जरूरत पड़ती है। ऐसे में, मरीजों को उन्हीं हॉस्पिटलों में भर्ती किया जाता है जहां वेंटीलेटर और दूसरे आधुनिक उपकरणों की व्यवस्था हो अन्यथा मरीज की जान जा सकती है। दुखद है कि मेडिकल सुविधाओं के भारी अभाव से गुजर रहे भारत जैसे देश के लिए यह एक बड़ी चींता का विषय है।
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