
तमाम स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और सेक्स जैसे विषय को लेकर व्यापक वर्जना के बावजूद भारत ने इस क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया है। सरकारी प्रयासों ने भी लोगों में जागरुकता फैलाने का काम किया है। हालांकि इसके बावजूद अभी
विश्व एड्स दिवस हर वर्ष एक दिसंबर को मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का उद्देश्य समाज में एड्स के प्रति जागरुकता फैलाना है। एड्स एचआईवी संक्रमण के कारण फैलता है।
एक अनुमान के अनुसार फिलहाल 35.3 मिलियन लोग एचआईवी के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। 1981 से 2012 तक एड्स के कारण दुनिया भर में लगभग 36 मिलियन लोग अपनी जान गंवा चुके हैं।
इस वर्ष की थीम है फोकस, पार्टनर, एचीव: एड्स-फ्री जनरेशन। इसके जरिये सरकारों और स्वास्थ्य अधिकारियों, एनजीओ और व्यक्ति के स्तर पर एड्स से बचाव और ईलाज पर ध्यान केंद्रित करने की योजना है।
1995 से अमेरिकी राष्ट्रपति को विश्व एड्स दिवस पर आधिकारिक उद्घोषक बनाया गया है।
इस बात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि अगर यूसुफ हमीद के नेतृत्व वाली कंपनी सिपला ने अफ्रीका में किफायती दामों पर दवा मुहैया न करायी होती, तो क्या होता। यह उन्होंने तब किया जब बड़ी फॉर्मा कंपनियों की नजर मुनाफे पर थी। यहां तक कि एचआईवी/एड्स के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग में भारत के मॉडल की सराहना संयुक्त राष्ट्र के सचिव बान की मून और यूएनएड्स के निदेशक माइकल सिडिबल जैसे नामी-गिरामी लोग भी करते है।
सच्चाई भी यह है कि तमाम स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और सेक्स जैसे विषय को लेकर यहां खुलकर बात नहीं की जाती। इसके बावजूद भारत ने इस क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया है। आइए हम पांच ऐसे मुद्दों को जानने की कोशिश करते हैं, जो इस बात को समझने में हमारी मदद करेंगे कि आखिर एचआईवी एड्स के खिलाफ जंग में भारत कहां खड़ा होता है और आखिर इस मामले में उसकी स्थिति क्या है, उसके सामने क्या चुनौतियां हैं और आखिर उनसे कैसे निपटा जा सकता है।
भारत में करीब 25 लाख एचआईवी ग्रस्त लोग हैं
भारत में करीब 25 लाख लोग एचआईवी वायरस से ग्रस्त हैं। एक अनुमान के अनुसार इनमें से करीब 61 फीसदी पुरुष हैं और 39 फीसदी महिलायें। संक्रमित व्यक्तियों में बच्चों की तादाद करीब 3.5 फीसदी है। 2009 के एक अनुमान के अनुसार व्यस्कों में इस बीमारी का प्रसार 0.31 फीसदी है। हालांकि यह काफी ज्यादा लग सकता है, लेकिन हमारी आबादी के हिसाब से यह आंकड़ा संतोषजनक कहा जा सकता है। दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका जैसे देश, जहां एड्स एक महामारी की तरह फैल चुका है, में इससे ग्रस्त लोगों की तादाद करीब 50 लाख है और व्यस्कों में इसके प्रसार की दर भी 18 फीसदी है।
कम लोगों तक पहुंच रही है दवा
एचआईवी जानलेवा बीमारी के बजाय अगर अब कुछ नियंत्रण में है, तो इसके पीछे एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) का बड़ा हाथ है। इसमें एचआईवी पॉजीटिव मरीज को कई दवाओं का कॉकटेल दिया जाता है। इससे उनकी स्थिति नियंत्रण में रहती है। ये दवायें एचआईवी को एड्स बनने से भी रोकती हैं। वास्तविकता यह है कि भारत ने दुनिया को यह रास्ता दिखाया है कि इस बीमारी का जल्द इलाज एचआईवी को एड्स बनने और वायरस को अधिक फैलने से रोकता है। यह ऐसे जोड़ों, जिनमें एक साथी एचआईवी ग्रस्त होता है, और मां से बच्चे को होने वाले संक्रमण, में देखा गया है। दुख की बात यह है कि अभी तक सभी संक्रमित लोगों तक यह इलाज नहीं पहुंच पाया है। भारत उन देशों में शामिल है, जहां अभी भी एचआईवी संक्रमित दस फीसदी से कम लोगों को ही एआरटी मुहैया हो पाती है। इसके साथ ही दवाओं की कमी की अपनी समस्या तो है ही।
2001 के बाद भारत ने लगायी लगाम
यूएनएड्स रिपोर्ट 2013 के मुताबिक एड्स को काबू करने के क्षेत्र मे भारत ने सराहनीय काम किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में 2001 से एचआईवी के नये संक्रमणों में करीब 57 फीसदी की कमी देखी गई है। यह आंकड़ा वाकई चौंकाने वाला और हौंसला बढ़ाने वाला है। यह इस क्षेत्र में भारत के सराहनीय काम की ओर इशारा करता है। वहीं अगर इसी पैमाने पर हम पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसी मुल्क में वहां इसके आंकड़ों में आठ गुना बढ़ोत्तरी देखी गई है।
यह सामाजिक धब्बा नहीं
दवाओं की कमी के अलावा एक बडी समस्या इस मुद्दे के साथ जुड़ी सामाजिक समस्या भी है। जब अमेरिका में यह बीमारी सामने आयी तो इसे होमोसेक्सुअलेटी, ड्रग का सेवन करने वाले और सेक्स वर्कस से जोड़कर देखा गया। हालांकि, समय के साथ इस नजरिये में फर्क आया है, लेकिन आज भी भारत समेत दुनिया के कई मुल्कों में इस बीमारी को 'धब्बे' के तौर पर देखा जाता है। ऐसी कई खबरें हमारी नजरों के सामने से गुजरती हैं जहां एचआईवी ग्रस्त परिवारों और लोगों को सामाजिक बहिष्कार और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोगों को नौकरी पर नहीं रखा जाता और स्कूल में ऐसे बच्चों को दाखिला तक लेने में मुश्किल आती है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि यह सामाजिक व्यवहार लोगों के लिए बीमारी से भी अधिक कष्टदायी होता है। इससे निपटने के लिए सामाजिक चेतना और जागरुकता जरूरी है।
हाई रिस्क ग्रुप बनाम नॉन हाई रिस्क ग्रुप
भारत में हाई-रिस्क ग्रुप के लोगों में यह बीमारी होने का खतरा नॉन हाई रिस्क ग्रुप के मुकाबले 15 से 30 गुना अधिक होता है। हाई रिस्क ग्रुप में सुइयों के जरिये नशे के आदी लोग शामिल होते हैं। ये लोग एक ही सुई से कई-कई लोग ड्रग्स लेते हैं, जिससे इस बीमारी का खतरा काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा असुरक्षित संभोग करने वाले लोग शामिल होते हैं। इनमें भी कई लोग सेक्स वर्कस के साथ संभोग करते हुए जरूरी एहतियात नहीं बरते। हाई रिस्क ग्रुप के लोगों का इलाज करना भी काफी मुश्किल होता है, क्योंकि वे अपनी अन गलत आदतों को आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं होते। अगर हमें एचआईवी को फैलने से रोकना है, तो हमें इस प्रकार के लोगों के पुर्नवास और इलाज के पुख्ता इंतजाम करने होंगे।
मजबूत कदमों से लगायी लगाम
भारत ने एड्स जैसी बीमारी की गंभीरता को देखते हुए इसके प्रसार को रोकने हेतु कंक्रीट कदम उठाये। सरकार ने सूचना प्रसार, शिक्षा और संवाद के जरिये इस बीमारी के खतरों के बारे में लोगों के बीच जागरुकता फैलाने का काम किया। इससे लोगों को पता चला कि आखिर यह बीमारी कैसे फैलती है और कैसे इससे दूर रहा जा सकता है। इसके साथ ही भारत में कभी इस बीमारी की गंभीरता और खतरों को नजरअंदाज नहीं किया गया। जबकि कई मुल्कों ने इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जिसके कारण इस रोग ने वहां महामारी का रूप ले लिया।
याद रखिए एड्स का सरकारी विज्ञापन इस बीमारी की भयावहता बिलकुल सही तरीके से बयां करता है। 'एड्स जानकारी ही बचाव है'। एक बार यह बीमारी हो जाए, तो फिर उसका कोई इलाज नहीं। इसलिए बेहतर है कि इस बीमारी से दूर ही रहा जाए। एड्स संक्रमित सुई, असुरक्षित यौन संबंधों, संक्रमित खून चढ़ाने और गर्भवती मां से होने वाले बच्चे को होता है। इनमें से काफी को हम रोक सकते हैं।
Image Courtesy- www.umaryland.edu
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