बचपन में खेल-खेल में मिली जीवन से जुड़ी ये महत्वपूर्ण सीख!

वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है, यहां तक कि बचपन और बचपन के खेल भी। दिन-भर की धमाचौकड़ी, तरह-तरह के खेल और छोटी-मोटी तकरारें अब बच्चों के बीच कहां देखने को मिलती हैं। आजकल के बच्चे अब तरह-तरह के ऐप के साथ खेलते नजर आते हैं। सही मायने में अब बचपन की पूरी तस्वीर ही बदल गई है। एक समय था जब “अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बोल, अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ में लागा धागा, चोर निकल के भागा”, ”टिपि टिपि टैप विच कलर यूं वॉन्ट” और “धप्पा“ जैसे शब्दों के बिना हमारे सारे खेल अधूरे हुआ करते थे। यह सिर्फ खेल ही नहीं थे बल्कि इनसे हमें जिंदगी के कई सबक भी सीखने को मिलते हैं। आइए याद करते हैं ऐसे ही कुछ खेलों को जब बचपन का मतलब कुछ अलग हुआ करता था और उनसे मिलने वाले जिंदगी के सबक के बारे में।

याद है वो खेल, जहां घरों से मार्बल के टूटे टुकड़े चुरा कर मस्ती हुआ करती थी। 8-10 मार्बल के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक के ऊपर एक रखा जाता था और दो टीमें बन जाती थी। एक टीम को बॉल से उस ढेर को निशाना बनाकर तोडना होता था! दूसरी टीम का काम होता था उस बॉल को पकड़ना, जबकि ढेर पर निशाना लगाने वाली टीम का काम होता था बॉल पकड़ में आने से पहले फिर से ढेरी को तैयार करना! कुछ याद आया? इस खेल से हमारा एकाग्रता और फोकस दोनों बढ़ता है और टीमवर्क की समझ बनती है।
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रंग-बिरंगे कंचों को अंधेरे में देखने का तो मजा ही कुछ और था! कंचा खेल में बच्चे कंचे से दूसरे के कंचे को अंगुली से निशाना लगाकर दूर फेंकते तथा अपने कंचे को एक तयशुदा छेद तक पहुंचाते। इस खेल से संतुलन और एकाग्रता बढ़ती थी।
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इसे खेल को भला कौन भुला सकता है? किसी भी पार्क में या खाली प्लॉट में इस खेल को खेल लिया जाता था! एक टांग पर कूदते हुए दूसरी टीम के लोगों को आउट करना हालांकि सुनने में आसान लगता है लेकिन मुश्किल था यार! कितनी बार गिरते थे, याद नहीं, लेकिन उस चोट में भी मजा था! लंगड़ी टांग से हमने एक पैर से कूदना सीखा, जैसे अब जिन्दगी सिखाती है मुश्किलों से जूझना।
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रस्सी कूदने का खेल लड़कियां खेला करती थीं, जिसमें रस्सी को गोलाकार बनाकर उछाला जाता है। इस खेल को छोटी सी जगह में ही खेला जा सकता था। इससे शरीर में स्टैमिना की बढ़ोतरी होती है। जबकि आज इस खेल का प्रयोग खिलाड़ी ही करते देखे जा सकते हैं। स्टापु भी लड़कियों का प्रिय खेल था, खेल तो यह लड़कियों का था लेकिन लड़के भी इसमें मजा लेते थे!
इसमें आंगन या साफ जगह पर लड़कियां चार से छह आयाताकार खाने बनाकर छोटे से पत्थर एवं स्लेट के टुकड़े से खेलती थीं। इस छोटे से टुकड़े को खानों में फेंककर एक टांग से उछलकर सभी खानों में घूमकर बाहर निकला जाता है। यह खेल शरीर को स्वस्थ रखने के साथ मजबूती भी देता था। साथ ही यह एकाग्रता और सटीकता का पाठ पढ़ाता था।
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"पोषम-पा भाई पोषम-पा साथियो ने क्या किया, सौ रुपये की घड़ी चुराई।" इस पंक्ति से कुछ यादें ताजा हुई अपने बचपन की! इस खेल में दो बच्चे एक दूसरे से हाथ मिलाकर खेल खेलते थे और एक बच्चा उनके बीच से निकलता था। पोषम-पा से सीखा हमने कभी ना करना भूल, क्योंकि जिन्दगी में सिर्फ फूल नहीं बल्कि कांटे भी हैं।
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