थैलेसीमिया

थैलेसीमिया बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक रूप में मिलने वाला रक्त-रोग अर्थात जेनेटिक डिस्आर्डर होता है। इस रोग में शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिसके चलते रक्तक्षीणता के लक्षण पैदा हो जाते हैं। बीटा चेंस के कम या बिल्कुल न बनने के कारण हीमोग्लोबिन गड़बड़ाता है। जिस कारण स्वस्थ हीमोग्लोबिन जिसमें 2 एल्फा और 2 बीटा चेंस होते हैं, में केवल एल्फा चेंस रह जाते हैं जिसके कारण लाल रक्त कणिकाओं की औसत आयु 120 दिन से घटकर लगभग 10 से 25 दिन ही रह जाती है। इससे प्रभावित व्यक्ति अनीमिया से ग्रस्त हो जाता है। इसमें रोगी के शरीर में खून की कमी होने लगती है जिससे उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।
माइनर या मेजर थैलेसीमिया

महिलाओं एवं पुरुषों के शरीर में मौजूद क्रोमोज़ोम खराब होने से माइनर थैलेसीमिया हो सकता है। यदि दोनों क्रोमोज़ोम खराब हो जाए तो यह मेजर थैलेसीमिया भी बन सकता है। महिला व पुरुष में क्रोमोज़ोम में खराबी होने की वजह से उनके बच्चे के जन्म के छह महीने बाद शरीर में खून बनना बंद हो जाता है और उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।
रोग की पहचान

इसकी पहचान तीन महिने की आयु के बाद ही होती है। दरअसल रोग से प्रभावित बच्चे के शरीर में रक्त की तेजी से कमी होने लगती है जिसके चलते उसे बार-बार खून चढ़ाने की आवश्यकता पड़ने लगती है। इस रोग के प्रमुख लक्षणों में भूख कम लगना, बच्चे में चिड़चिड़ापन एवं उसके सामान्य विकास में देरी होना आदि प्रमुख होते हैं।
थैलेसीमिया के लक्षण

थैलेसीमिया के लक्षणों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं- थकान, कमजोरी, त्वचा का पीला रंग (पीलिया), चेहरे की हड्डी की विकृति, धीमी गति से विकास, पेट की सूजन, गहरा व गाढ़ा मूत्र
लक्षणों से जुड़े तथ्य

आप जिन संकेतों और लक्षणों का अनुभव करते हैं उनका प्रकार रोगी के थैलेसीमिया की गंभीरता पर निर्भर करता है। कुछ बच्चों को जन्म के समय थैलेसीमिया के लक्षण दिखाने लगते हैं, जबकि कुछ दूसरों को ये संकेत या लक्षण जीवन के पहले दो वर्षों के बाद विकसित हो सकते हैं। हांलाकि वे लोग जिनका केवल एक ही हीमोग्लोबिन जीन प्रभावित होता है, उनको जो कुछ लोगों को थैलेसीमिया के किसी भी लक्षणों का अनुभव नहीं होता है।
गंभीर परिणाम

थैलेसीमिया प्रभावित रोगी की अस्थि मज्जा (बोन मैरो) रक्त की कमी की पूर्ति करने की कोशिश में फैलने लगती है। जिससे सिर व चेहरे की हड्डियां मोटी और चौड़ी हो जाती है और ऊपर के दांत बाहर की ओर निकल आते हैं। वहीं लीवर एवं प्लीहा आकार में काफी बड़े हो जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में इस रोग से लगभग डेढ़ लाख बच्चे ग्रस्त हैं एवं प्रतिवर्ष 10 से 12 हजार बच्चे और इसमें जुड़ जाते हैं।
थैलेसीमिया का इलाज

थैलेसीमिया का इलाज, रोग की गंभीरता पर निर्भर करता है। इसलिए डॉक्टर रोग के हिसाब से इलाज का निर्धारण करता है। सामान्य तौर पर, उपचार में निम्न प्रक्रियाएं शामिल हो सकती हैं:- रक्ताधान, अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण, दवाएं और सप्लीमेंट्स, संभव प्लीहा और / या पित्ताशय की थैली को हटाने के लिए सर्जरी, साथ ही आपको विटामिन या आयरन युक्त खुराक न लेने के निर्देश दिए जा सकते हैं, खासतौर पर रक्ताधान होने पर।
थैलेसीमिया के इलाज का अन्य चरण

थैलेसीमिया से ग्रसित बच्चे को कई बार एक माह में 2 से 3 बार खून चढ़ाने की जरीरत पड़ सकती है। इसमें रोगी को बार-बार रक्त चढ़ाने से शरीर में आयरन की मात्रा अधिक हो जाती है। और इस अतिरिक्त आयरन को चिलेशन के जरिए शरीर से बाहर करने के लिए डिसफिरॉल इंजेक्शन और ओरल दवाएं दी जाती हैं। बोन मैरो प्रत्यारोपण से इन रोग का इलाज सफलतापूर्वक संभव है लेकिन बोन मैरो का मिलान एक बेहद मुश्किल प्रक्रिया है।
थैलेसीमिया की रोकथाम

बच्चा थैलेसीमिया रोग के साथ पैदा ही न हो, इसके लिए शादी से पूर्व ही लड़के और लड़की की खून की जांच अनिवार्य कर देनी चाहिए। यदि शादी हो भी गयी है तो गर्भावस्था के 8 से 11 सप्ताह में ही डीएनए जांच करा लेनी चाहिए। माइनर थैलेसीमिया से ग्रस्थ इंसान सामान्य जीवन जी पाता है और उसे आभास तक नहीं होता कि उसके खून में कोई दोष है। तो यदि शादी के पहले ही पति-पत्नी के खून की जांच हो जाए तो कफी हद तक इस आनुवांशिक रोग से बच्चों को बचाया जा सकता है।