इन कारणों के चलते कुछ पुरुष नारीवाद का नहीं करते समर्थन!
मैं अपने आसपास कई ऐसे लोगों (विशेषकर परुषों) को देखता हूं, जो लैंगिक समानता का समर्थन करते हैं, लेकिन 'फेमिनिज्म' शब्द के आते ही उनके व्यवहार में अजीब सा बदलाव या कहिये असहजता आ जाती है। चलिये जानें ऐसा क्यों है?

मैं अपने आसपास कई ऐसे लोगों (विशेषकर परुषों) को देखता हूं, जो लैंगिक समानता (gender equality) का समर्थन करते हैं, लेकिन 'फेमिनिज्म' शब्द के आते ही उनके व्यवहार में अजीब सा बदलाव या कहिये असहजता आ जाती है। तो क्या वे दिल से लैंगिक समानता का समर्थन नहीं करते हैं? या फिर 'फेमिनिज्म' शब्द की व्यवहारिक स्थिति सहजवृत्ति से उन्हें ऐसा करने पर बाध्य करती है। यह एक बड़े शोध व चर्चा का विषय है, और इसके बारे में विचारधाराओं में मदभेद होना स्वभाविक है। ज्यादा शोध या चर्चा में न पड़ते हुए, मैंने लोगों (महिलाएं व पुरुष दोनों) से बात कर व सोशल माडिया पर उनके लोखों को पढ़ व विश्लेषण कर यह जानने का प्रयास किया कि 'फेमिनिज्म' शब्द को लेकर पुरुषों में ये सहजवृति से होने वाली तलखी क्यों है? और क्या इसका होना जायज़ है?
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अधिकतर पुरुषों ने इस विषय पर एक समान राय ज़ाहिर की, "यदि यह महिलाओं को उनके जायज़ अधिकार दिलाने व उन्हें सशक्त करने के लिये इस्तेमाल हो, तो हमें 'फेमिनिज्म' शब्द से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब इस शब्द को पुरुषों के खिलाफ भेदभाव करने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो ये आपत्ति का विषय है।" महिला आदाकाराओं सहित कई फिल्मी हस्तियों में शोशल मीडिया पर लिखा भी कि ‘फेमिनिज्म का मतलब मर्दों से नफरत करना या उन्हें गाली देना नहीं होता’।
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अलग अलग समय में, कई लेखकों ने (महिलाएं व पुरुष दोनों) सोशल मीडिया के माध्यम से कहा कि, ‘बराबरी, न्याय और आजादी’ के सार्वभौमिक सिद्धांत के बाहर जाते ही नारीवाद आत्म-केंद्रित विलास बन जाता है। शायद ये बात सही भी हो सकती है, क्योंकि भारतीय मुख्यधारा का नारीवाद (फेमिनिज्म) भी उस लगभग-आदर्श समाज की सोफिस्टिकेटेड चारदीवारी में काम करने लगा है, जिसमें उसके एक्सक्लूसिव-मुद्दे हैं। फिल्मी कारोबार में महिलाओं से गैर-बराबरी, महिला कवियों के प्रति आलोचकों की उदासीनता, साहित्य-पुरस्कारों में गैर-बराबरी, आजाद-सेक्स पर रोक, मासिक-धर्म जैसे ‘अन्याय’ पर पुरुषों की उदासीनता, जैसे संभ्रांत मुद्दे इंडियन फेमिनिज्म के मुख्य मुद्दे बन चुके हैं, और इनके समाधान के रूप में एक ढाई मिनट की विज्ञापन फिल्म को सभी के (महिलाएं व पुरुष दोनों) दिमाग में उतारकर संभव है। लेकिन ये वाला फेमिनिज्म तो पूंजीवाद, उपभोक्तावाद और मार्किट मीडिया मूवमेंट के लिये ज्यादा व्यापार कर पाने के समर्थक हैं।
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फेमिनिज्म की लड़ाई के चलते कानून की मदद औरत को उपलब्ध तो हुई, लेकिन किसी हद तक ये कानून बहुत एकपक्षीय है। अक्सर हमारे यहां कानून पश्चिम की नकल कर बनाए जाते हैं। लेकिन पश्चिम में कानून जेंडर न्यूट्रल होते हैं, किंतु हमारे यहां राजनितिकरण और मीडिया के दबाव के चलते ऐसा नहीं हो पाता है।
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आजकल कोई भी चीज़ वायरल होती है। जो दिखता है, वो ही बिकता है, और सब उसी को फॉलो करते हैं। वही अनुकरणीय भी है। लेकिन दुखद है कि कुछ संस्था व लोगों ने नारीवादी शब्द को सिर्फ अपने हितों के लिये एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया हैं। एक तरफ माई चॉयस जैसी विडियो आती हैं तो, दूसरी ओर लगभग हर विज्ञापन या फिल्म में औरतों को सिर्फ सैक्स सिंबल की तरह पेश किया जाता है, ओर लड़कियों को प्रेरित किया जाता है कि सैक्स सिंबल बनकर ही वे बाकी लड़कियों के लिए आदर्श पेश कर सकती हैं।
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कुछ लोग कहते हैं कि पुरुषों ने हजारों सालों से औरतों पर अत्याचार किये हैंसताया है। सारी स्मृतियां, सारे ग्रंथ, सारे धर्म उनके पक्षधर रहे हैं। अब औरतों को मौका मिला है तो वे भी ऐसा क्यों न करें! लोकिन एक पुरानी कहावत है कि जिससे हम घृणा करते हैं, हम वैसे ही बन जाना चाहते हैं। तब फिर पुरुषों की निंदा क्यों? फिर तो ये अवसरवादिता भर रह जाएगी। वास्तविकता में, फेमिनिस्म शब्द का अर्थ केवल नारी के अधिकारों या शक्ति की बात करना नहीं है, बल्कि यह शब्द नारी और पुरुष के संतुलन भरे संबंध से पूर्ण होता है। फेमिनिज्म का अर्थ है औरत को नई पहचान मिले उसे खुद के विषय में सोचने का व निर्णय लेने का अधिकार हो। सबसे जरूरी है कि महिलाओं के लिए (महिलाओं सहित) जनसमुदाय को अपनी सोच बदलनी होगा, जिससे महिला के जीवन का सही निर्माण हो सके।
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