नाड़ी परीक्षा के द्वारा इस बात की जांच की जा सकती है कि आपके शरीर में मौजूद इन दोषों में संतुलन किस प्रकार से आता है।
मौसम में बदलाव के कारण वायु में नमी की मात्रा बढ़ जाती है। वातावरण में नमी के बढ़ने और तापमान में गिरावट के कारण बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्म जीवाणुओं को पनपने का एक अच्छा अवसर मिल जाता है, जिसके कारण लोगों में डेंगू, फ्लू, मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियां हो जाती हैं।
आयुर्वेद, 5000 वर्ष पुराने स्वास्थ्य कल्याण एवम् चिकित्सा तंत्र के अनुसार, मौसम में हुए बदलाव के कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को अग्नि तत्व के द्वारा समझा जा सकता है। अग्नि तत्व शरीर के लिए अति आवश्यक तत्व है।
अग्नि या जठराग्नि की तीव्रता, अलग-अलग मौसमों में विभिन्न प्रकार की होती है। सर्दी के मौसम में जठराग्नि की तीव्रता अत्यधिक होती है और मॉनसून में यह तीव्रता बहुत कम होती है। आयुर्वेद के अनुसार, अग्नि तत्व के ठीक प्रकार से कार्य ना करने पर, कई प्रकार के जठरांत्र एवम् उपापचय संबंधी विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
अग्नि तत्व किस प्रकार से कार्य करता है, यह जानने से पहले आयुर्वेद में बताए गए दोषों के सिद्धांतों को समझना आवश्यक है। एक व्यक्ति की प्रकृति या उसका शारीरिक एवम् मानसिक संघटन शरीर में उपस्थित तीन स्फूर्त जैव ऊर्जाओं का अनुपात होता है। इन्हें दोष के नाम से भी जाना जाता है। ये ऊर्जाएं हैं- वात, पित्त और कफ।
प्रत्येक दोष के अपने विशेष लक्षण होते हैं। पित्त दोष अग्नि तत्व है और यह पाचन करता है। वात दोष वायु तत्व है और इसके कारण शरीर में सभी प्रकार की गतियां होती हैं। कफ दोष पृथ्वी तत्व है और त्वचा को नमी और जोड़ों को स्नेहन प्रदान करता है। अधिकतर ऐसा होता है कि तीन दोषों में से दो दोष ही एक व्यक्ति में एक समय पर प्रबल होते हैं।
नाड़ी परीक्षा के द्वारा इस बात की जांच की जा सकती है कि आपके शरीर में मौजूद इन दोषों में संतुलन किस प्रकार से आता है। आयुर्वेद के अनुसार, दोषों में अत्यधिक असंतुलन से शरीर में बीमारी उत्पन्न हो जाती है।
आयुर्वेद अन्य प्रकार की दवाईयों के तंत्र से इसीलिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। नाड़ी परीक्षा के द्वारा आपके शरीर में उत्पन्न उन बीमारियों या दोषों के असंतुलन के बारे में प्रभावशाली तरीके से जांच की जा सकती है, जिसके प्रति आपका शरीर संवेदनशील है। इसीलिए,एक योग्य आयुर्वेदिक अभ्यासकर्ता के द्वारा नाड़ी परीक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह आपके सम्पूर्ण स्वास्थ्य का आकलन करती है।
आयुर्वेद में, हमारे शरीर में पाचन एवम् उपापचय के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व को अग्नि कहा गया है। अग्नि की सहायता से ग्रहण किए गए भोजन का पाचन, अवशोषण एवम् आत्मसात होता है। जीवन को बनाए रखने के लिए यह एक जटिल प्रक्रिया है, जो अग्नि के द्वारा होती है। आयुर्वेद में, अग्नि शब्द का वर्णन ऊर्जा के रूप में किया गया है, जो भोजन के पाचन एवम् उपापचय की प्रक्रिया को संभव बनाती है। इसीलिए, आयुर्वेद में यह माना गया है कि देह अग्नि जीवन, रंग-रूप, स्वास्थ्य, पोषण, कांति, ओजस (जीवन शक्ति), तेज एवम् प्राण प्रदान करती है।
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पाचन के लिए आवश्यक अग्नि में कमी के कारण शरीर में मौजूद दोषों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। सबसे पहले वात दोष उत्पन्न हो जाता है और इसके साथ -साथ पित्त या कफ दोष उत्पन्न होता है। इससे शरीर में कई बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। आयुर्वेद में, बदलते मौसम में स्वस्थ रहने के लिए कुछ उपाय बताए गए हैं जो निम्नलिखित हैं:
इस मौसम में सरलता से पचने वाला,गर्म और हल्का भोजन ग्रहण करना चाहिए। गुनगुना और स्वच्छ पानी पिएं। साधारण पानी की अपेक्षा उबला हुआ पानी पिएं क्योंकि इसमें जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं,साथ ही साथ इसका पाचन सरलता से हो जाता है और यह पाचन तंत्र को मजबूत बनाता है। पत्तेदार सब्जियों एवम् कच्चे सलाद का प्रयोग संयम से करना चाहिए क्योंकि इनका पाचन कठिनाई से होता है और यह जठराग्नि को धीमा कर देती हैं। पाचन हेतु अग्नि को बढ़ाने के लिए अदरक, काली मिर्च और नीबू का प्रयोग किया जा सकता है। दालें, सूप, पुराने रखे हुए अनाज और छाछ को भोजन के साथ ग्रहण किया जा सकता है। भोजन और पानी के साथ शहद का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि यह क्लेद (अत्यधिक नमी) को कम करता है, जो मॉनसून के कारण शरीर को प्रभावित करती है।
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इस मौसम में बिना पचे हुए भोजन को पचाने के लिए गिलोय का प्रयोग बहुत लाभदायक है। साथ ही साथ यह मौसमी बुखार से भी बचाता है। पाचन शक्ति को बनाए रखने के लिए दिन में एक या दो बार अदरक की चाय लेना लाभदायक है। इसमें थोड़ा शहद मिला लेने से यह और भी अधिक गुणकारी हो जाती है।
ये लेख, श्रीश्री तत्व (आर्ट ऑफ लिविंग) के वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉक्टर नीरज जसवाल से हुई बातचीत पर आधारित है।
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